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जैन महाभारत
वसुदेव का इस प्रकार उत्साह पूर्ण आग्रह देखकर महाराज समुद्रविजय और अन्य सभासदों ने जयजयकर की हर्ष ध्वनि के साथ-साथ वसुदेव को विजय यात्रा के प्रस्थान के लिप स्वीकृति प्रदान कर दी ।
वसुदेव शुभ मुहूर्त में सिंहस्थ पर विजय प्राप्त करने के लिए चल पडे । कस और वसुदेव की सेनाऍ धीरे-धीरे सिंहपुर तक जा पहुँची । शत्रु सेना के आगमन का समाचार सुनते ही सिंहस्थ भी सिंह की भाँति दहाड़ता हुआ अपने दुर्ग रूपी मॉद से बाहर निकल आया । दोनो और की सेनाओ मे रणभेरी वज उठी, सूर्योदय के साथ ही घमसान युद्ध आरम्भ हो गया । सिंहरथ की बडी भारी सेना के समक्ष वसुदेव की सेना बहुत स्वल्प थी, फिर भी वसुदेव श्रद्भुत रण कौशल दिखा रहे थे, कस उनका सारथी बनकर उनके रथ का ऐसा संचालन कर रहा था कि शत्रु सेना आश्चर्य चकित हो स्तच्ध रह गई । कम के द्वारा संचालित वसुदेव का रथ शत्रु सेनाओं में सहसा एक छोर से दूसरे छोर तक ऐसे जा पहुँचता, मानो मेघ समुद्रों में बिजली कौध रही हो, कई दिनो तक घमासान युद्ध होता रहा । कुछ भी समझ में नहीं आता था कि विजयश्री किस का वरण करेगी। कभी इस पक्ष का पला भारी होता तो दूसरे क्षण में दूसरा 1
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ऐसे घनघोर युद्ध के समय भला कस जैसा बलवान् वीर केवल सारथी बनकर रथ सचालन का कार्य ही कैसे करता रह सकता था ? उसके हृदय में भी रग-रह कर शत्रु को दो दो हाथ दिखाने का जोश उमड रहा था, यह उसके स्वभाव के विरुद्ध था कि वह कायरों की भाँति स्वय युद्ध में कोई भाग न लेकर मात्र किमी का रथ वाहक बना रहे । श्रतः 'अवसर हाथ आने ही वह बिजली की भाँति अपने रथ से कूद सिंहस्थ ने पर कपटप । उसने बात की बात में मुद्गर से सिंहस्थ के
को चरन्तर कर दिया। किसी को पता भी न लगा कि कब कम रथ में हवा. तन शत्रु के रथ के पास पहुंचा, और जब उसे नष्टप्राय कर दिया ।