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महाराणी गंगा
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"महाराज । सम्भव है आपकी ही बात सच हो, नाविक कहने लगा, पर भविष्य के बारे में कौन जानता है ? क्या पता गागेय कुमार का व्यवहार उनके साथ कैसा हो । जब तक आप जीवित हैं तव तक वे राज कुमारों जैसा मुख भोगेंगे पर आपके बाद की बात तो अनिश्चित है । यह भी तो हो सकता है कि गागेय कुमार उन्हें महल से ही निकाल बाहर करे।"
"तुम कैसी बाते कर रहे हो, मेरा गांगेय ऐसा कदापि नहीं हो सकता।" महाराज शान्तनु ने दृढ़ शब्दों मे कहा।
"मनुष्य को बदलते देरी नहीं लगती महाराज !" ।
"पर मैं जो विश्वास दिलाता हूँ ? क्या मुझ पर तुम्हे विश्वास नहीं है" शान्तनु ने जोर देकर कहा ।
"आपका तो हमे विश्वास है पर क्षमा कीजिए राजन् आप भविष्य की गारटी कैसे दे सकते हैं । आप अमर तो नहीं हैं" ___"मुझे दुख है कि मैं गागेय को युवराज पद दे चुका हूँ और अव मैं उस निर्णय को बदल नहीं सकता" शान्तनु ने विवशता प्रकट की। ___ "तो मुझे भी बहुत दुख है कि मैं सत्यवती को इस प्रकार आपको नहीं दे सकता। माना कि वह प्रतिदिन नाव चलाती है, परिश्रम करके रोटी कमाती है, और यदि किसी नाविक के घर गई तो इसकी सन्तान को परिश्रम करके रोटी कमानी होगी । पर उनके साथ केवल इस लिए तो उपेक्षा भाव नहीं बरता जायेगा कि वे सत्यवती के बालक हैं, उन्हें इस बात का तो दण्ड भोगना नहीं पड़ेगा कि उन्होंने सत्यवती जैसी रूपवती की कोख से जन्म लिया है। सत्यवती का पुत्र केवल इस लिये तो अपने पिता की सम्पत्ति से अधिकार च्युत नहीं होगा क्योंकि वह एक ऐसी मां की सन्तान होगा जिसका विवाह ऐसे पति से हुआ जो जिसके घर में पहले से एक नारी थी और इसी कारण उसकी सन्तान को पिता की सम्पत्ति पर अधिकार मिल गया। सत्यवती का विवाह यदि किसी श्रमजीवि से होगा तो उसकी सन्तान को किसी दूसरे को देख कर हाथ नहीं मलने होंगे, आहे नहीं भरनी होंगी' नाविक ने लम्बा-सा एक भाषण दे डाला।।
शान्तनु ने बहुत समझाया, बहुतेरी दलीलें दी, क्तिने ही दृढ़