Book Title: Shukl Jain Mahabharat 01
Author(s): Shuklchand Maharaj
Publisher: Kashiram Smruti Granthmala Delhi

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Page 574
________________ जैन महाभारत - - - - - - पाण्डव उसकी धूर्तता समझ गए। उन्होंने कहा-"आपने बहुत अच्छा किया, अच्छा चलो फिर सभी साथ चलते हैं।" . पाण्डवो ने जाते ही भयकर आक्रमण किया। अर्जुन के बाणो ते द पद की सेना के लिए वही कार्य किया जो ज्वाला की लपटें मधु मक्खियों के लिए करती है। उस के बाणो की वर्षा से द्र पद एक दम निरुत्साह हो गया। उसकी सेना ने कितनी ही टक्कर झेली, पर अन्त मे वह निराश हो गई। द्र पद पाण्डवो की वीरता के सामने झुक गया, उसका अभिमान चूर चूर हो गया। अर्जुन ने उसे नाग-पाश मे बांध लिया और बोला-"द्रपद महाराज ' शक्ति या सम्पत्ति का अभिमान कभी सुखदायी नहीं होता। राजा द्र पद सुनकर लज्जित हो गया उसने सिर झुका लिया। अर्जुन उसे बॉधकर द्रोणाचार्य के पास ले गया और बोला-"लीजिए, गुरुदेव । यह है आपकी गुरु दक्षिणा ।'' ____ आज द्र.पद को अपने सामने बन्दी रूप मे खडा देखकर द्रोणाचार्य को जो प्रसन्नता हो रही थी, उसे बस वे ही अधिक जानते थे । उनके मन का कांटा निकल गया था । वे गदगद थे। उन्होने अर्जुन को आशीर्वाद देकर द्र.पद को सम्बोधित करते हुए कहा "राजा रक का मित्र नहीं हो सकता' तुम्हे याद है वह अपनी बात? "जब मै आपके सामने बन्दी की दशा में खड़ा हूं तो आपको ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए थी। सिंह को पिजरे में बन्द करके उस पर वार करना वीरता नहीं है । द्रुपद ने क्रोध को पीते हुए कहा । परन्तु वह क्षण तुम्हे याद नहीं है जब मै तुम्हारे सामने असहाय अवस्था में खड़ा था तुम्हारे दरबार में, तुम्हारी विराट शक्ति थी। तुम सिहासन पर थे। तुम्हारा विचार था कि तुम मुझे निहत्थे, निस्सहाय और निर्धन व्यक्ति का चाहे जो बना सकते हो । उस समय तुमने यह क्या नहीं सोचा कि किसी की विवशता से अनुचित लाभ नहीं उठाना चाहिए, क्या तुमने अपनी स्थिति का लाभ नहीं उठाया था ? क्या तुम्हे याद है कि तुमने अपने सैनिको को मुझे धक्के देकर बाहर निकालने का आदेश दिया था। तुमने मुझ से अनभिन्न होने का स्वांग रचा था। मेरे स्वाभिमान को बार बार ठोकर लगाई थी, क्या :: तुम्हें याद है कि तुमने वास्तव में अपना आधा राज्य देने की प्रतिज्ञा र

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