Book Title: Shukl Jain Mahabharat 01
Author(s): Shuklchand Maharaj
Publisher: Kashiram Smruti Granthmala Delhi

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Page 602
________________ जैन महाभारत ५७८ उनके धैर्य तथा समता का बाँध टूट गया । उन्होंने इस दुष्कृत्य समाचार को लोगों में प्रसारित किया । जिससे वह सोमदत्त के कानों तक भी पहुँच गया । ~ 1 सोमदत्त ने इस अपवाद को अपने कुल का कलंक समझा। उसे महान् दुख हुआ नागश्री के इस कुकृत्य पर । वह तत्काल नागश्री के पास पहुँचा और उसे उसके लिए अत्यन्त भर्त्सना दी। पर बात छुपने वाली न थी, धीरे-धीरे वह आबाल वृद्ध सभी के कानों पहुँच गयी। उसके भाइयों को जब मालूम हुआ तो वे भी परिवार सहित वहाँ पहुँचे और सब मिलकर लगे नागश्री को इस प्रकार कहने अरि प्रार्थी की प्रार्थना करने वाली नागश्री तू सचमुच निष्ठुरा है। अरि दुष्टा ! तपस्वी को कटुक शाक देते हुये तुझे लज्जा नहीं आई । हीन लक्षणे । तेरे लक्षणों से स्पष्ट लक्षित होता है कि सचमुच तेरे द्वारा ही यह महान् पाप किया गया है । तूने हमारे कुल को कलकित कर डाला है। आज तो तूने एक साधु के प्राण लिये हैं कल को तू हमारे मे से किसी पर हाथ साफ करेगी। पापिन | तू कच्चे नीम फल के समान कटु है । तू सर्वथा त्याग देने योग्य है जा निकल जा अभी हमारे घर से - यों कहते हुए उन्होंने नागश्री के शरीर पर रहे बहुमूल्य आभरणों तथा वस्त्रो को भी छीन लिया और उसे धक्के देकर बाहर निकाल दिया। अब गृह निर्वासित बेचारी नागश्री चम्पानगरी के द्विपथ, चतुष्पथ आदि राजमार्गों तथा गलियों में भटकने लगी । वह जिधर भी निकल जाती अबाल वृद्ध सभी उसकी भर्त्सना करते, कटुक शब्द कहते | यहां तक कि उन्होंने ककर पत्थर मार कर उसके शिर आदि अङ्गों को घायल कर दिया । देखिये यह वही समृद्धशालिनी स्वरूपा नागश्री है जिसकी सेवा में अनेकों को दास दासि प्रतिक्षण उपस्थित रहते थे; जो निरन्तर अनेकों को अन्नादि दान देती हुई आनन्दमय जीवन बिता रहीं थी, वही आज पेट पूर्ति के लिये दर दर की भीख मांग रही है। जिसके सिर पर दरिद्रों की भाँति फूटा हुआ मिट्टी का घड़ा पानी पीने के लिये रक्खा है । शरीर पर रमणीय आभरणों के स्थान पर घावों में से रक्त धारा बह रही है । उसका पुष्ट वदन पिचक गया, आँखें अन्दर गड़ गई हैं। बाल बिखरे हुये हैं । वर्ण श्याम हो

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