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महाराणी गंगा
२७७ छीनना चाहती हो । इस प्रकार पगु बनाने की इच्छा कर रही हो" शान्तनु ने तनिक उत्तेजित हो कर कहा ।
"इस मे पगु होने की क्या बात है ? गगा ने कहा, क्या आप शिकार खेले बिना पगु हो जायेगे? यह तो बड़ी थोथी दलील है । न शिकार खेलना कोई कला ही है।"
"तीरन्दाजी तो कला है।"
"हा है, पर क्या इसका अभ्यास जीव हत्या करके ही किया जा सकता है ?" गगा ने प्रश्न किया।
"और क्या ईट पत्थरो पर वाण चलाने का अभ्यास करू ?"
"सीधी सीधी तरह आप कह दीजिए कि मैं अपना वचन पूण नहीं करना चाहता और तुम्हे धाखा दिया गया था, वह वचन नहीं मन बहलावा था ?"
"गगा | तुम मुझ पर सन्देह कर रही हो और मुझे झूठा कह कर मेरा अपमान कर रही हो" शान्तनु बिगड पडे । ___ "महाराज । इस में बिगडने की क्या आवश्यकता है। यदि सत्य से आप का अपमान ही होता हे तो इस के कारण भी आप ही है" गगा ने तनिक आवेश मे आकर कहा । ___ "गगा ! मुझे आशा नहीं थी कि तुम मेरा इस प्रकार उपहाल करोगी, इस प्रकार अपमानित करने का प्रयत्न करोगी" शान्तनु अधिक उत्तेजित हो गए। "आप तो क्षत्रिय हैं, गगा ने तुनक कर कहा, क्षत्रियों की रीति और परम्परा का तोड कर आप अपना मान चाहते है और वह भी एक सन्नारी द्वारा ?" ___वात वढ गई । शान्तनु रुष्ट हो गये और गगा भी। वह अपने पूर्व निश्चयानुसार गागेय कुमार को साथ लेकर अपने पिता के यहाँ चली गई । इस से शान्तनु क्षब्ध हो गए।
xx शान्तनु सिंहासन पर विराजमान थे। कई अनुचर वहाँ पहुच ग । उचित सम्मान प्रदर्शित करते हुए उन्होंने महाराज की जय हो का नाद बुलन्द किया।
"पाइये, 'प्राइये | कहो कुशल तो है ?" महाराज शान्तनु ने पूछा।