Book Title: Shukl Jain Mahabharat 01
Author(s): Shuklchand Maharaj
Publisher: Kashiram Smruti Granthmala Delhi

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Page 580
________________ * सताईसवां परिच्छेद * द्रोपदी स्वयंवर पाँचाल देश अन्य प्रदेशों मे नगीने की भॉति सुशोभित हो रहा था। यह देश जलवायु, खाद्यान्न उत्पादन तथा विद्या आदि समस्त साधनों से परिपूर्ण था। इसकी शस्य श्यामला भूमि अपनी मोहकता से परदेशी के'मन को बरबस अपनी ओर आकर्षित कर लेती। अधिक तो क्या इस सर्वाङ्गीण सुन्दर देश की उपमा से शास्त्रकारों ने आत्मसाधना मे लीन रहने वाले, शास्त्रज्ञ बहुश्रुति को उपमित किया है । पाठक इससे अनुमान लगालें कि वह कितना सुन्दर एव शोभाशाली देश था।। यहॉ महाराज द्र पद अपनी तीनो सतति के मुख कमल देख देख सदा आनन्द पूर्वक रह रहे थे । । राजधानी काम्पिल्यपुर मे महाराज द्रपद एक बार अपने राज्यसिंहासन पर बैठे थे कि उनकी पुत्री द्रोपदी उन्हें प्रणाम करने के लिये वहाँ आई। उस समय उसके तन पर बहुमूल्य वस्त्र तथा मणि रत्नों के आभूषण पड़े हुये थे। एक तो वह पहले ही स्वरूपा थी दूसरे इन आभरणों से उसका सौन्दर्य सूर्य रश्मियों की भॉति प्रतिभाषित होने लगा जिससे वह साक्षात् देवांगना स्वरूप जान पड़ती थी। परम सुन्दरी राजकुमारी द्रोपदी के रूप लावण्य तथा शालीनता आदि गुणों पर प्रसन्न हो 5 पद ने उसे अपनी गोद में बैठाया और क्षण भर निर्निमेष दृष्टि से उसकी ओर देखने लगा मानो कुशल कलाकार अपने हाथों निर्मित की हुई कला को देख रहा हो । अनायास ही द्र पद का मौन भंग हुवा, वह बोल उठा "पुत्री । मैंने तुझे दरिद्र के रत्न की भॉति पालित पोषित किया है। मै तुझे अपने प्राणों से भी प्रिय समझता हूँ। इतना होते हुये भी यदि मैं तुम्हे किसी राजा अथवा

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