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बारहवां परिच्छेद
महाराणी गंगा गगा के सुरम्य तट पर एक परम सुन्दरी, षोड्शी खड़ी थी कदाचित् गगा जल में अपनी अभूतपूर्व काति को देख कर स्वय अपने रूप पर ही मोहित हो रही थी।
राजा शान्तनु अनायास ही उस ओर निकल आये, और इस परमसुन्दरी के रूप पर बिल्कुल उसी भान्ति मोहित हो गए जैसे कोई भ्रमर सुन्दर पुष्प पर । वे उस लावयण्वती सुन्दरी के रूप की चमक में खो गए और भूल गए कि वे आये हैं शिकार खेलने, और यहाँ तक एक मृग का पीछा करते-करते आ पहुँचे हैं। वे उस मृग को बिल्कुल ही भूल गए जिस का शिकार करने हेतु वे कितने ही समय से परेशान हो रहे हैं, वह मृग उन्हें बहुत पसन्द आया। उस की सुन्दरता उनके मन में खुब गई, उस की चचलता और उद्दण्डता ने उन्हे अपनी ओर
आकर्षित किया और वे इस उच्छृङ्खल मृग का शिकार करने के लिए लालायित हो उठे। पर वह मृग भी पूरा नटखट निकला, महाराज शान्तनु को उस ने खूब छकाया, उन्हें अपनी तीर अन्दाजी पर अभिमान था पर वह मृग उछलता, कूदता बिजली की भान्ति इधर से उधर छलागें लगाता रहा। __महाराज शान्तनु को इतना भी अवसर न मिल सका कि वे धनुष पर तीर चढ़ा कर एक बार निशाना लगा सकें और मृग को बता दें कि उस का वास्ता एक महान् तीरन्दाज से पड़ा है। जिस शिकार पर