Book Title: Shukl Jain Mahabharat 01
Author(s): Shuklchand Maharaj
Publisher: Kashiram Smruti Granthmala Delhi

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Page 599
________________ द्रौपदी स्वयवर ने उनका उचित स्वागत किया । और अपने हाथों से बहुमान के साथ उत्तम पदार्थ परोसे, तथा उसने स्वय भी उनके साथ बैठकर भोजन किया। प्रेमपूर्वक भोजन करने के पश्चात् अनेकों क्रीडाए करके सब अपने २ घर को लौट गये। उसी नगरी के बाहर पूर्वोत्तर दिशा में सुभूमिभाग नामक उद्यान था जो अत्यन्त रमणीय तथा मोहक था । उस उद्यान मे सुन्दर आवास गृह भी बने हुये थे, जिनमें आकर ऋषि मुनि भी निवास किया करते थे। उन्हीं दिनों इसी राजोपवन में आचार्य धर्म घोष अपने शिष्य मण्डल सहित ठहरे हुये थे। उनमे धर्म रुचि नामक प्रधान शिष्य थे जो मासोपवासी मुनि थे । वे भी पहले राजकुमार थे किन्तु विलासिता की सम्पूर्ण सुख सुविधाओं को छोडकर उन्होंने इस तपश्चरण का आचरण किया, जिसके द्वारा उनका आत्मा तो बलवान् किन्तु शरीर कृश हो गया था। फिर भी आठों याम कायोत्सर्ग, स्वाध्याय में ही लीन रहते। एक बार मासोपवास पारण के लिये वे नगरी में आये। उनकी दृष्टि में सभी नगरवासी समान थे। वे छोटों को भी बडों के रूप में देखना चाहते थे। इस प्रकार जीवन का अध्ययन तथा भिक्षा की गवेषणा करते उच्च मध्यम व निम्न कुलों में घूमने लगे। किन्तु कहीं भी उनकी वृत्त्यानुसार आहार न मिला। अन्त में देवयोग से नागश्री के घर पहुचे गये । नागश्री ने अपनी असावधानी को छुपाने के लिये छुपाकर रक्खा हुआ वह कटु तुम्बक का शाक उन्हें कचवर पात्र समझते हुए दे दिया। उसे लेकर धर्मरुचि अपने स्थान पर पहुंचे और शास्त्र विधि के अनुसार उसने उसे गुरु के समक्ष रखा । और उसके सम्बन्ध की सारी बातें सुनाकर वे स्वाध्याय आदि दैनिक क्रियाओं में लग गये। _____ पात्र में रहे हुए उस शाक को देखकर तथा उसमे से निकलती हुई तीव्र गन्ध को जानकर उनके दिल में शका उत्पन्न हुई। पहले तो उन्हें अपनी शका निमूल प्रतीत हुई किन्तु जब उसमें से चखा तो वह सचमुच ही कडवा निकला था। उन्होंने तत्काल धरुचि अणगार को बुलाया और कहने लगे-“हे शिष्य । हे तपस्वी ।। यह शाक कटु रम वाला है यदि तू इसे खायेगा तो अकाल में ही तेरे प्राण पखेरू उड़ जायेंगे। साधक के लिए यह उचित नहीं कि वह जान-बूझकर आत्म

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