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जैन महाभारत अपने धनुर्विदा की कुशलता दिखलाकर मुझे सन्तुष्ट करे हे साहसी भूधर । तुम्हारे इस गर्वोन्नत शिखर को आज तक किसी ने आच्छादित नहीं किया है। अब मैं उसे अपने वाण रूपी मेघों से आच्छादित कर दिखाता हूँ। तुम नहीं जानते मेरा नाम समुद्रविजय
इसके उत्तर में वसुदेव ने अपने स्वर को बदल कर उत्तर दिया कि हे राजेन्द्र विशेष कुछ कहने कि क्या आवश्यकता है। वीरों की वीरता युद्ध भूमि मे छिपाये नहीं छिपती। यदि आप समुद्रविजय हो तो मैं भी युद्ध विजयी हूँ।
वसुदेव के ऐसे वचन सुनते ही समुद्रविजय का स्नेह भाव सहसा हवा हो गया, अब तो उन्होने क्रोध में भरकर बाण को धनुष में चढा कानों तक खींच जोर से प्रत्यचा का शब्द करते हुए कहा कि सम्मल यह बाण आ रहा है । इस प्रकार समुद्रविजय के धनुष से ज्योंही बाण छूटा कि वसुदेव ने उस बाण को अपने बाण से बीच ही मे काट गिराया। इस प्रकार समुद्रविजय ने वसुदेव पर बाणों की झड़ी लगा दी। पर कुमार ने उनमें से एक भी बाण को उनके पास नहीं पहुचने दिया सबको बीच ही में काट गिराया। अब समुद्रविजय ने देखा कि यहां साधारण शस्त्रास्त्रो से काम चलने का नहीं। इसलिए उन्होंने वरुणास्त्र वायवास्त्र आदि अस्त्र छोडने प्रारम्भ कर दिये । वसुदेव भा बडी तत्परता के साथ उनके विरोधी अस्त्र छोडकर उनका निराकरण कर देते। ज्योंही इधर से समुद्रविजय द्वारा छोड़ा गया आग्नेयास्त्र प्रलयाग्नि की ज्वलाएँ उगालने लगता कि उधर वसुदेव का वरुणास्त्र प्रलयशरों की वर्षा कर जल थल को एक कर देता। दोनों भाईयों के इस घमासान युद्ध को देखकर देव-दानव-गन्धर्व आदि सभी आश्चर्य चकित हो दांतों तले उगली दबाने लगे। चराचर मात्र के कभी एक की तो कभी दूसरे की प्रशमा करते न थकते । जब समुद्रविजय ने वसुदेव को किसी प्रकार भी पराजित होते न देखा तो काध में भरकर उन्होंने एक जुरप्रणामक अत्यन्त तीन वाण फेंका। वसुदेव ने इस वाण को बीच ही में काट कर इसके तीन टुकड़े कर डाले और उसके तीन टुकड़ों से समुद्र विजय