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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १७७ ॥
कहै । उकृष्ट असंख्यात भव अगिले पिछलेका ग्रहण कहै । बहुरि क्षेत्रतें जघन्य तौ च्यारितें ले आठ योजनताईकी कहै । उत्कृष्ट मानुषोत्तरपर्वतकै माहिली कहै वारली न कहै ॥ ऐसें कहे जे मनःपर्ययज्ञानके दोय भेद तिनिवि विशेषकी प्राप्तिके अर्थि सूत्र कहै हैं--
॥ विशुध्धप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः ॥ २४ ॥ याका अर्थ-- दोऊ मनःपर्ययज्ञानके विर्षे विशुद्धि अरु अप्रतिपात इनि दोय विशेषनिकरि विशेष है । अपने आवरण जो कर्म ताके क्षयोपशम होते आत्माकै विशुद्धता उज्वलता होय ता• विशुद्धि कहिये । संयमतें छुटनेकू प्रतिपात कहिये, जो प्रतिपात नाही ताळू अप्रतिपात कहिये । उपशांतमोहवाले जीवकै चारित्रमोहका उदय होते संयमरूप शिखरसे प्रतिपात हो है उलटा आय पडै है । बहुरि क्षीणकषायवालेकै पडनेका कारण नाही । तातें उलटा न आवै है अप्रतिपात हो है। | इनि दोऊनिकरि ऋजुमति विपुलमति मनःपर्ययज्ञानमें भेद है। तहां विशुद्धिकरि तौ ऋजुमतिते विपुलमतिज्ञान द्रव्य क्षेत्र काल भावके विशेष जाननेकरि अतिशयकरि विशुद्ध है जो कार्माणद्रव्यकै
अनंतवै भाग अंतका भाग सर्वावधिज्ञान जानै है । ताळू अनंतका भाग देते अंतका भाग ऋजुमति | मनःपर्ययज्ञानका विषय है । ताकू अनंतभागरूप कीये अनंतका भागकू विपुलमतिज्ञान जान है ।
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