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మగుండంనుంdasserterనులను
॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचदं कृता ॥ तृतीय अध्याय ॥ पान ॥ ३०२ | ऐसें पूछे ताके निर्धारकै अर्थि सूत्र कहै हैं॥ तासु त्रिंशत्पञ्चविंशतिपञ्चदशदशत्रिपञ्चोनैकनरकशतसहस्राणि पञ्च चैव यथाक्रमम२
याका अर्थ- तिनि भूमिनिविर्षे अनुक्रमते तीस लाख पचीस लाख पंदरा लाख दश लाख तीन लाख पांच घाटि एक लाख अरु पांच एते नरक कहिये विला हैं । ते रत्नप्रभादिक भूमि तिनिविर्षे इस संख्याकरि नरक कहिये विला गिणिये । तहां रत्नप्रभावि तीस लाख हैं । शर्कराप्रभाविष पचीस लाख हैं। वालकाप्रभावि पंदश लाख हैं। पंकप्रभावि दस लाख हैं। धूमप्रभावि तीन लाख हैं। तमःप्रभाविर्षे पांच घाटि एक लाख हैं। महातमःप्रभावियें पांचही हैं | बहरि रत्नप्र भावि तेरह प्रस्तार हैं तिनिकू पाथडा कहिये हैं । बहुरि आगें दोय दोय घाटि हैं। तहां दूसरै ग्यारा, तीसरे नव, चौथै सात, पांचवै पांच, छठे तीन, सातवै एक ऐसै प्रस्तार जानने । बहुरि इनि भूमिनिका अन्य विशेष लोकनियोगशास्त्रतें जाननां ॥
इहां किछु विशेष लिखिये हैं । तहां रत्नप्रभाविर्षे अब्बहुलभागवि ऊपरि नीचै हजार हजार योजन छोडि वीचिमैं बिला हैं । ते इंद्रक, श्रेणीबंध, प्रकीर्णक ऐसे तीन प्रकार हैं । तहां तेरह प्रस्तार हैं । तहां तेरहही वीचि वीचि इंद्रक हैं । तिनिके नाम समितक, सीर, परोरुक , भ्रांत.
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