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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ सप्तम अध्याय ॥ पान ५५५ ॥ है, ताका विशेषण होय है ऐसें जानना ॥ आगें ऐसें व्रतीके भेद जाननेकू सूत्र कहें हैं
॥ अगा-नगारश्च ॥ १९॥ याका अर्थ-- एक अगारी कहिये गृहस्थ दूजा अनगार कहिये मुनि ऐसे व्रतीके दोय भेद हैं । तहां वसनेके अर्थि पुरुष जाकों अंगीकार करै सो अगार कहिये ताकू वेश्म मंदिर घरभी कहिये, सो जाकै होय सो अगारी कहिये । बहुरि जाकै अगार न होय सो अनगार कहिये । ऐसें | दोयप्रकारके व्रती हैं। एक अगारी दूसरा अनगार । इहां तर्क, जो, ऐसें तो विपर्ययकीभी प्राप्ति
आवै है । शन्यागार देवमंदिर आदिकेविर्षे आवास करते जे मनि तिनकै अगारीपणा आया। बहुरि जो विषयतृष्णातें निवृत्त नाहीं भया है, ऐसा गृहस्थ सो कोई कारणनै वनमें ज्याय बस्या ताकै अनगारपणा आया । तहां आचार्य कहै हैं, यह दोष इहां नाहीं आवै है । इहां भाव अगारकी विवक्षा है । चारित्रमोहके उदयतें अगार जो घर ताके संबंधप्रति जो अनिवृत्ति परिणाम है सो
भावअगार है । सो ऐसा जाकै भावअगार होय सो वनमें वसता होय तौऊ अगारीही कहिये । || अर घरमें वसै ते अगारीही हैं । बहुरि भावअगारका जाके अभाव है सो अनगार कहिये है ॥
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