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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ चतुर्थ अध्याय ॥ पान ३७१ ॥
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आय करै दारू आदि अशुचिका नामभी लेय तौ तिनकी क्रीडामात्र चेष्टा है । ते मानसीक आहारी हैं । तातै तिनकैं कुछ भक्षण नाहीं । तिनके मांस दारू आदि अपवित्रका भक्षण कहना तिनका अवर्णवाद है । यातें मिथ्यात्वका आश्रवका अनुभाग तीव्र आवै है । बहुरि तिनके आवास तो खरभागविर्षे कहै हैं । बहुरि पृथिवीउपरिभी तिनके द्वीप समुद्र पर्वत देश ग्राम नगर गृहनिके आंगण गली जलके निवास उद्यान देवमंदिर आदिविर्षे असंख्यात हैं। आगें तीसरा निकायकी सामान्य विशेष संज्ञाके नेम कहनेके अर्थि सूत्र कहैं हैं |
॥ज्योतिष्काः सूर्याचन्द्रमसौ ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारकाश्च ॥ १२॥ याका अर्थ- इन पांचूहीकी ज्योतिष्क ऐसी सामान्यसंज्ञा ज्योतिःस्वभावतें है, सो सार्थिक है । बहुरि सूर्य चंद्रमा ग्रह नक्षत्र प्रकीर्णक तारका ऐसी पांच विशेषसंज्ञा हैं। सो यहु नामकर्मके उदयके विशेषत भई है। बहुरि सूर्याचंद्रमसौ ऐसी इन दोयकै न्यारी विभक्ति करी सो इनका प्रधानपणां जनावनेके अर्थ है । इनके प्रधानपणा इनके प्रभाव आदिकरि कीया है । बहुरि इनके आवास कहां हैं, सो कहिये है । इस मध्यलोककी समानभूमिके भागते सातसैं नवै योजन | उपरि जाय तारानिके विमान विचरै हैं । ते सर्व ज्योतिषीनिके नीचें जानना । इनतें दश योजन
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