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। सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ।। षष्ठ अध्याय ॥ पान ५२७ ॥
जैसे दीपक घटादिककू दिखाय दे, तैसें वस्तुकू कहै है तिस शास्त्रकी प्रमाणता है । जातें भगवान अरहंत सर्वज्ञका ज्ञान युगपत् सर्वपदानिका प्रकाशनेवि समर्थ प्रत्यक्ष प्रतिभासरूप है, तिसका भाष्या शास्त्र है सो यथार्थ उपदेश करनहारा है, तातें ताके वचन प्रमाणभूतही हैं । बहुरि वस्तुखभावके वि सर्वमतके वक्तानिके विसंवाद नाहीं है, जो विसंवाद होय तौ सर्वका कहना मिथ्या ठहरै तातें स्वभावविर्षे तर्क नाहीं। बहुरि सामान्यपणे तो आयुविना सातकर्मका आश्रव निरंतर होय है। तहां जैसा योगका विशेष होय तैसा तो समयप्रवृद्ध हीनाधिक पुद्गलके परमाणुका | पुंजका वटवारा होय जाय है । तामें कषायके अनुसार स्थिति अनुभाग पडे है । बहुरि अनुभाग तीन मंद बहुतप्रकार है, तिसके विशेष जनावनेषं तत्प्रदोषनिह्नव आदिक न्यारेन्यारे ज्ञानावरण
आदि कर्म के आश्रवके कारण कहे हैं। तिनतें यथायोग्य तीव्र अनुभाग बंध होय है। ऐसा विशेष जानना॥
ऐसें छटा अध्यायमें ज्ञानावरण आदि आठ कर्मके आश्रवके कारण सामान्यविशेषकरि कहे । ताकू जानिकरि भव्यजीवनिकू आश्रवके भावनितें निवृत्ति होय शुद्धचैतन्यके अनुभवके विषं तत्पर होना योग्य है, यह श्रीजिनेन्द्रके मार्गवि निर्ग्रन्थगुरुनिका उपदेश है ॥
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