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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ सप्तम अध्याय ॥ पान ५६९ ॥ न होय सकै नाइलाज होय तब जैसें अपना गुणका विनाश न होय तैसें यत्न करै, यामें कैसे आत्मघात भया कहिये? तहां पूछे है, कि, सल्लेखना मरणके अंतविर्षे कही, सो मरणका ज्ञान कैसें होय? तथा विनाजाणे कैसे करिये ? तहां कहिये है, जरा रोग इन्द्रियनिकी हानि दीखै जो अवश्य जाणे अब यह शरीर रहेगा नाही, तब प्रासुक आहारपाणीकरि तथा उपवासादि तपकरि अनुक्रमतें शरीरका बल क्षीण होता जाय तहां मरणपर्यंत द्वादशभावनाका चितवनतें काल गमावै, शास्त्रोक्त विधानकरि समाधि मरण करै ।।
आगे जो “ निःशल्यो व्रती" ऐसा पूर्व कहा था, तहां तीसरा शल्य मिथ्यादर्शन कह्या था, तातें यह जान्या, जो व्रती होय है सो सम्यग्दृष्टि होय है, मिथ्यादृष्टि व्रतनिकी क्रियारूप प्रवत तौऊ व्रती नाहीं । तहां पृछै, सो सम्यग्दर्शन अतीचारसहित सापवाद होय है कि अतीचाररहित निरपवाद होय है ? ऐसे पूछे सूत्र कहै हैं, जो, कदाचित् मोहनीयकर्मका विशेष जो सम्यक्त्वप्रकृति तातें ए अपवाद कहिये अतीचार होय हैं, याका सूत्र
॥ शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टेरतीचाराः ॥ २३ ॥ याका अर्थ- शंका कांक्षा विचिकित्सा अन्यदृष्टिप्रशंसा अन्यदृष्टिसंस्तव ए पांच अतीचार |
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