________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ सप्तम अध्याय ॥ पान ५६१ ॥
| होय है । बहुरि दिशाके परिमाणविर्षेभी कालकी मर्यादकी सापेक्षा मर्याद करै, जो, इस महीनामें
तथा पक्षमें तथा इस दिनमें अपने घरमेंही रहना है, तथा इस नगरमेंही रहूंगा, तथा फलाणा वाडा तथा बाजार हाटतांईकी मर्याद है इत्यादि प्रतिज्ञा करै सो देशविरतिव्रत है । इहांभी जेता देशकी मर्याद करी तातें बाहिर हिंसादिके अभावतें महाव्रतपणाका उपचार है ।
बहुरि जिसने किछु अपना परका उपकार नाहीं अर अपने परके नाश भय पापका कारण ऐसा जो कार्य सो अनर्थदंड है , तिसते रहित होना, सो अनर्थदंडविरतिव्रत है । सो यहू पंचप्रकार है, अपध्यान पापोपदेश प्रमादाचरित हिंसाप्रदान अशुभश्रुति ऐसें । तहां परके जय, पराजय, वध, बंधन, अंगछेदन, सर्वधनका हरण इत्यादि कैसे होय ऐसे मनकरि चिंतवना; सो तौ अपध्यान है । बहुरि क्लेशरूप तिर्यग्वणिज प्राणिवधका तथा हिंसाका आरंभ आदिक पापसंयुक्त वचन कहना, सो पापोपदेश है। बहुरि प्रयोजनविना भूमिका कूटना, जलका सींचना, वृक्षका छेदना आदि अवद्य कहिये पाप, ताका कार्य सो प्रमादाचरित है । बहुरि विष, लोहके
कांटा, शस्त्र, अग्नि, जेवडा, कोरडा, चावका, दंड आदि हिंसाके उपकरणका देना, सो हिंसा| प्रदान है । बहुरि हिंसा तथा रागादिककी वधावनहारी खोटी कथा तिनका सुनना सीखना प्रवर्तन |
For Private and Personal Use Only