________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ अष्टम अध्याय ॥ पान ५९१ ॥
अब इनका आशय लिखिये हैं । कालवादी तौ कहै है, जो, यह काल है सोही सर्व कूं उपजा है, कालही सर्वका नाश करे है, कालही सर्वकूं सुवाणै है, निद्रा दे है, तथा जगावे है, यह काल काहूकार जीत्या न जाय, सर्वके ऊपरि खडा है, ऐसें तौ कालवादी कहैं हैं । बहुरि ईश्वरवादी कहै है, जो, यह जीव अज्ञानी है, बहुरि अनीश्वर है, असमर्थ है, याके सुख दुःख स्वर्ग नरकका गमन आदि सर्व कार्य ईश्वर करे है, ऐसा ईश्वरवादीका आशय है | बहुरि आत्मवादी कहे है, जो, पुरुष एकही है, महात्मा है, देव है, सर्वव्यापी है, सर्व अंग जाके गूढ हैं, चेतनासहित है, निर्गुण है, परम उत्कृष्ट है । भावार्थ, यह सर्व सृष्टिकी रचना है, सो पुरुषमयी है, दूसरा कोई नहीं ऐसा आत्मवादका अर्थ है | बहुरि नियतवादी कहै है, जो, जिसकाल जाकरि जैसें जाकै नियमकरि होय है, सो तिसकाल तिसकरि तिसप्रकार ताकैही होय है, ऐसा नियम है ऐसा नियतवादका अर्थ है | बहुरि स्वभाववादी कहै है, देखो, कंटक के तीखापणा कौन करे है ? अरु पशु पंखी आदि जीवनिकै अनेकप्रकारपणा कौंन करे है ? तातें जानिये है कि स्वभावही ऐसें करे है, ऐसें स्वभाववादका अर्थ है । ऐसें क्रियावाद के भेद कहे ॥
ra अक्रियावादके मूलभेद दोय नास्तिक स्वतः परतः ऐसें । दोऊकूं पुण्यपापविना सात
For Private and Personal Use Only