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॥ सर्वार्थसिदिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ अष्टम अध्याय ॥ पान ६०९ ॥ | प्रकृतिका उत्तरभेद कहनेयोग्य है ऐसें पूछे सूत्र कहें हैं
॥ चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां निद्रानिद्रानिद्राप्रचलाप्रचलाप्रचलास्त्यानगृहयश्च ॥७॥ ___ याका अर्थ- चक्षु, अचक्षु, अवधि, केवल ए च्यारि तौ दर्शन; तिनका आवरणरूप च्यारि, प्रकृति बहुरि निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगद्धि ए पाच निद्रा ऐसे दर्शनावरणकर्मकी नव उत्तरप्रकृति हैं। तहां चक्षु अचक्षु अवधि केवल इनका आवरणकी अपेक्षाकरि भेद कहना, चक्षुर्दर्शनावरण अचक्षुर्दर्शनावरण अवधिदर्शनावरण केवलदर्शनावरण ऐसें । बहुरि मद खेद ग्लानि इनके दूरि करनेकै अर्थि सोवना निद्रा है । बहुरि तिस निद्राका उपरिउपरि फेरिफेरि आवना सो निद्रानिद्रा है। बहुरि जो आत्माकू सूतेही क्रियारूप चलायमान करै शोक खेद आदि । करि उपजै बैठेकेंभी नेत्र शरीर विक्रिया होय, सो प्रचला है । बहुरि सोही फेरिफेरि प्रवर्ते सो प्रचलाप्रचला है । बहुरि जाकरि सोवतेंभी पराक्रम सामर्थ्य बहुत प्रगट होय सूताही उठि किछु कार्य । करै फेरि सोवै यह न जानें 'मैं किछ किया था' सो स्त्यानगृद्धि है । इहां स्त्यायति धातुका अनेक |
अर्थ हैं, तिनमेंसूं सोवनेका अर्थ ग्रहण कीया है । बहुरि गृद्धिधातुकाभी दीप्ति अर्थ ग्रहण है, तातें | सोवतेभी जो आत्मा पराकमरूप दिपै ऐसा अर्थ भया । जाके उदयतें आत्मा बहुत रौद्रकर्म करै सो |
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