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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ अष्टम अध्याय ॥ पान ६०८ ॥
ताकै आवरण को कहिये ? ऐसें दोऊही पक्षमें आवरण बनें नाहीं । ताका समाधान, जो, इहांभी आदेशवचन जानना | द्रव्यार्थिकनयके आदेशतें तौ सत्कै आवरण कहिये । जैसें सद्रूप आकाशकै मेघपटलका आवरण देखिये है, तैसें जानना । बहुरि पर्यायार्थिकनयके आदेशकरि असत्कै आवरण कहिये । जातैं उत्पत्तिका रोकनेवाला होय ताकुंभी आवरणशब्दकरि कहिये है । जो एकान्तकर सत्कै तथा असत्कै आवरण कहिये तौ ज्ञानकै क्षायोपशमिकपणां बर्णे नाहीं । बहुरि ज्ञान किछु न्यारे पदार्थ है नाहीं । आत्माके गुणपर्यायस्वरूप है । सो जब आवरण होय तब तिस पर्यायी व्यक्ति न होय सकै है । बहुरि जब आवरणका अभाव होय तब ज्ञानकी व्यक्ति प्रगट होय है । जैसें प्रत्याख्यानसंयमभाव न्यारा पदार्थ नाहीं आत्माविषैही शक्तिरूप है । जेतें प्रत्याख्यानावरणकर्मका सद्भाव होय तेतैं तौ प्रत्याख्यान प्रगट न होय अर जब याका आवरणका अभाव होय तब आत्माकें प्रत्याख्यानपर्यायकी व्यक्ति होय है; तैसें इहांभी जानना । ऐसें यह ज्ञानावरणकर्म है । याके उदयतें आत्माके जाननेकी सामर्थ्य हीन होय तब स्मरण नाहीं होय, धर्मश्रवण नाहीं होय, अज्ञानके वशर्तें अनेक दुःखनिकं भोगवै है ||
आगे पूछे है कि, ज्ञानावरणकी उत्तरप्रकृतिका भेद तौ कला, अब दर्शनावरणकर्मकी
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