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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ।। पान ४२८ ॥ है । सूक्ष्मनिगोदजीवकी अवगाहना जघन्य अंगुलकें असंख्यातवै भाग है। ताके असंख्यातप्रदेश हैं । तिस प्रमाणतें घाटि होय नाहीं है। जातें संकुचना विस्तरना कर्महीके निमित्ततें है । आगे कोई कहै, जो, धर्मादिक द्रव्य परस्पर प्रदेशनिकरि मिल रहे हैं, ताक् तिनकै आपसमें पटलकरि एकता होती होयगी । ताकू कहिये, जो, एकता न होय है । परस्पर मिलिं रहे हैं। तोऊ अपने अपने स्वभावकू नाहीं छोडै हैं। इहां उक्तं च गाथा है, ताका अर्थ- ए छह द्रव्य परस्पर प्रवेश करता आपसमें अवकाश देते हैं, परस्पर मिलते संतेभी अपने अपने स्वभावकू नाहीं छोडै हैं । __ इहां पूछे है, जो, ऐसे है। इनकै स्वभावभेद है तो इनका जुदा जुदा स्वभावभेद कहो । ऐसे पूछै सूत्र कहें हैं- .
॥गतिस्थित्युपग्रहौ धर्माधर्मयोरुपकारः ॥ १७॥ याका अर्थ- गति कहिये गमन स्थिति कहिये तिष्ठना ये दो उपकार जीव पुद्गल इन | दोऊ द्रव्यनिकू धर्मद्रव्य तथा अधर्मद्रव्यका है। तहां द्रव्यके एक क्षेत्रसें अन्यक्षेत्रमें गमन करना
सो तौ गति है । बहुरि गमनकरि थंभि जाना सो स्थिति है। ए दोऊ उपकार धर्म अधर्मद्रव्यके हैं। धर्मद्रव्यका तो गति उपग्रह है । अधर्मव्यका स्थिति उपग्रह है। इहां कोई पूछे है, जो,
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