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॥ सर्वार्षसिद्धिवनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय । पान ४५४ ।। तानंतपरमाणुनिकरि उपजे है। तोऊ कोई इन्दियगोचर होय है। कोई इन्द्रियगोचर नाहीं होय है। तहां जो इन्द्रियगोचर नाहीं है, सोही कैसें इन्द्रियगोचर होय है ? तहां कहिये, जो, भेद संघात इन दोऊनितें चाक्षुष होय है भेदतें न होय है। इहां चाक्षुष कहनेतें इन्द्रियनिकरि ग्रहणमें आवनेयोग्य होय सो लेणा । सो उत्पत्ति कैसे है ? सो कहिये है। जो सूक्ष्मपरिणाम स्कंध है, ताका भेद होतें तो सूक्ष्मपणाकू छोडे नाहीं । तातें सूक्ष्म इन्द्रियनितें अगोचरही रहै । बहुरि कोई सूक्ष्म परिणया स्कंध होय ताका भेद होतें अन्य जो स्कंध होय तातें संघातरूप होय मिले । तब सूक्ष्मपरिणामकू छोडि स्थूलपणाकी उत्पत्तितें चाक्षुष होय है ॥
आगें पूछे है, धर्म आदिक द्रव्यनिके विशेषलक्षण तो कहे । तथापि सामान्य द्रव्यका लक्षण न कह्या, सो कह्या चाहिये । ऐसें पूछे मूत्र कहै हैं
॥ सत् द्रव्यलक्षणम् ॥ २९॥ याका अर्थ- द्रव्यका लक्षण सत् है । जो सत् है सोही द्रव्य है ऐसा जानना । यह | सामान्यअपेक्षाकरि द्रव्यका लक्षण है । जातें सर्वद्रव्य सत्मयी हैं। आगें पूछे है, जो, ऐसे है सत् द्रव्यका लक्षण है तो सत् कहा है? सोही कहो । ऐसें पूछे सूत्र कहे हैं
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