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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७३५ ॥
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| मान्या संतान अवस्तु है तैसें । तातें स्याद्वादीनिहीकै ध्याता बणे है। सो उत्तमसंहननका | धरी सूत्रमें कह्याही है ।
बहुरि इहां अन्यमती कहैं, जो, हमारै पवनके साधनेवाले हैं ते उत्तमसंहननविनाही ध्यानकी सामर्थ्यते मनकू वश करै हैं । ताकू पूछिये, जो, पवन कैसें साधी? तहां कहै, | जो, गुरुका उपदेश्या अभ्यास कीया, तातें पवन जीती। तहां कहिये, उत्तमसंहननविना ऐसा | अभ्यासही बणै नाहीं। तिस अभ्यासविर्षे दृढ शरीरविना पीडा उपजै। तहां अन्तर्ध्यान होय । | पहले जाका पवनधारणाविर्षे मन लीन होय ताकै अन्य ध्येयविर्षे प्रवृत्ति होय । तब ध्यान में | काहेका ? ज्ञानकू एकाग्र करै अर पवनका यत्नभी करै । ऐसें तौ मन एकाग्र होय नाहीं। याही | युक्तिते जे प्राणायामधारणकू ध्यानका कारण कहै हैं तथा प्रत्याहारकू कहै हैं तेभी वणें नाही।
बहुरि यम और नियम हैं ते ध्यानका कारण हैंही । ते स्याद्वादीभी माने हैं। जाते असंयमीकै । । योगकी सिद्धि नाहीं । बहुरि अंतर्मुहूर्तताईका ध्यानका काल कह्या है । सो यह काल हीनसंहनन· धारीकै नाही बण हैं । बहुरि उत्तमसंहननवालाभी अंतर्मुहूर्तते शिवाय ध्यानविर्षे एकध्येयकू ध्याय सकै नाहीं है । ऐसें पूछे है, जो, मुनिनिकै बहुतकालभी तो ध्यानअवस्था रहै है । ताकू कहिये,
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