________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobetirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय ॥ पान २३४ ॥ बहुरि यातें ऊपरि जघन्यवर्गणाके वर्गनिविर्षे जे अविभागप्रतिच्छेद थे तिनितें दूणे जिस वर्गणाके वर्गविर्षे अविभागप्रतिच्छेद होय तहांतें द्वितीयस्पदकका प्रारंभ होय तहांभी एक एक अविभागप्रतिच्छेद वधनेका क्रमरूप वर्गनिका समूहरूप जेती वर्गणा होय तिनिके समूहका नाम द्वितीय स्पर्दक है । बहुरि ऐसेही प्रथमस्पदककी प्रथमवर्गणाके वर्गनिवि जेते अविभागप्रतिच्छेद थे तिसत तिगुणे जिस वर्गणाके वर्गनिविर्षे अविभागप्रतिच्छेद पाईये तहांत तीसरे स्पदकका प्रारंभ होय,
ऐसेंही वर्गणाके समूहका नाम स्पर्द्धक है । सो ऐसे स्पर्द्धक अभव्यराशिते अनंतगुणा अरु || सिद्धराशिकै अनंतवै भाग एक उदयस्थानविर्षे हो है ऐसें जाननां ॥ _ आगै जो इकईस भेदरूप औदयिक भाव कह्या ताके भेदनिके नाम कहनेके अर्थि सूत्र कहै हैं॥गतिकषायलिंगमिथ्यादर्शनाज्ञानासंयतासिध्दलेश्याश्चचतुश्चतुस्त्येकैकैकैकषड्भेदाः॥६
याका अर्थ- गति च्यारि भेद, कषाय च्यारि भेद, लिंग कहिये वेद तीन भेद, मिथ्यादर्शन एक, अज्ञान एक, असंयम एक, आसिद्ध एक, लेश्या छह, ऐसे इकईस भेदरूप औदयिक | भाव है ॥ तहां यथाक्रम ऐसी तो पूर्वसूत्रतें अनुवृत्ति लेणी। तिसके संबंधः गति तो च्यारि भेद , नरकगति, तिर्यग्गति, मनुष्यगति , देवगति । तहां अपने अपने नामकर्मकी प्रकृतिके उदयतें होय
For Private and Personal Use Only