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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ दशम अध्याय ॥ पान ८०१॥
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तामें बडे गुनी गुनग्रंथ ॥ तिनकी संगतिः कछु बोध । पायौ में अध्यातम सोध ॥८॥ शास्त्रज्ञान अधिकौ नहि पढ्यौ । धर्मप्रसाद राग बहु बढ्यौ ॥ तवै विचार भयौ हियमांहि । तत्वारथको ज्ञान करांहि ॥९॥ भयौ बोध तव कछु चिंतयो। करन वचनिका मन उमगयौ । सब साधरमी प्रेरण करी । ऐसें मैं यह विधि उच्चरी ॥१०॥ काल अनादि भ्रमत संसार । पायी नरभव में शुभकार ॥ जन्म फागई लयौ सुथानि । मोतीराम पिताकै आनि ॥ ११ ॥ पायो नाम तहां जयचंद । यह परजाय तणूं मकरंद ॥ द्रव्यदृष्टि मैं देखू जवै। मेरा नाम आतमा कवै ॥ १२॥ गोत छावडा श्रावकधर्म । जामें भली क्रिया शुभकर्म ॥ ग्यारह वर्ष अवस्था भई । तब जिनवारगकी शुधि लही ॥ १३ ॥ आन इष्टिको ध्यान अयोग। अपने इष्ट चलन शुभ भोनि ॥ तहाँ दजी मंदिर जिनराय । तेरापंथ पंथ तहाँ साज ॥ १४ ॥ देव धर्म गुरु सरधा कथा । होय जहां जन भार्षे यथा ॥ तब मो मन उमग्यो तहां चलो। जो अपनूं करनो है भलो ॥ १५॥ जाय तहां श्रद्धा दृढ करी। मिथ्या बुद्धि सबै परिहरी ॥ निमित पाय जयपुरमें आय । बडी जु शैली देखी भाय ॥ १६ ॥ गुणी लोक साधर्मी भले। ज्ञानी पंडित बहुते मिले ॥ पहले थे वंशीधर नाम । धरै प्रभाव भाव शुभ ठाम ॥ १७ ॥ टोडरमल पंडित मति खरी । गोमटसार बचनिका करी ॥ ताकी महिमा सवजन करें। वाचे पदै बुद्धि विस्तरै ॥ १८॥ दौलतिराम गुणी अधिकाय । पंडितराय राजमैं जाय ॥ ताकी बुद्धि लसै सव खरी । तीन
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