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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । द्वितीय अध्याय ॥ पान २९६ ॥ वायु आदि रोगका काल आयेविनांही वमन विरेचनादिके प्रयोगकरि श्लेष्मादिकका निराकरण करै है, तैसें इहांभी जाननां । ऐसें न होय तौ वैद्यकशास्त्र मिथ्या ठहरै ।। इहां फेरी कहै, जो, रोगते दुःख होय ताका दूरि करनेके अर्थि वैद्यकका प्रयोग है । ताकू कहिये दुःख होय ताकाभी इलाज कर है बहुरि दुःख नाही होय तहां अकालमरण न होने निमित्तभी प्रयोग करै है ।। __ इहां कोई कहै, जो, आयुका उदीरण रूप क्षय है निमित्त जाकू ऐसा अकालमरणका इलाज कैसे होय ? ताकू कहिये असातावेदनीयका उदयकरि आया दुःखका इलाज कैसे होय ? जैसे असातावेदनीयका उदय तो अंतरंग कारण बहुरि बाह्य वातादि विकार होते ताका प्रतिपक्षी
औषधादिकका प्रयोग कीजिये तब दुःख मिटि जाय है । तैसेंही आयुकर्मका उदय अंतरंग कारण होते बाह्य जीवितव्यके कारण पथ्य आहारादिकका विच्छेद होते आयुकी उदीरणा होय मरण होय जाय अरु पथ्य आहारादिककी प्राप्ति होते उदीरणा न होय जीवितव्य रहै है तब अकालमरण न होय है ऐसें जाननां । बहुरि कोई कहै आयु होतेभी मरण होय तौ तहां कर्मका फल दीया विनां नाश ठहरै है । ताकू कहिये, असातावेदनीयका उदय होतेभी ईलाजतें मिटै तब कर्म फलरहित कैसे न भया ? । फेरि कहै , कडी औषधिके ग्रहणकी पीडामात्र दुःख असातावेदनीय फल
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