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॥ सर्वार्थसिदिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६५१ ॥ होते देखिये हैं । जैसें अमि एक है तोऊ यातें वस्तूका पचना नामा कार्यभी होय है बहुरि वस्तूकू | भस्म करि देना नामा कार्य भी होय है । तैसें तपते अभ्युदयभी होय है अर कर्मकाभी नाश होय है । यामें कहा विरोध है ? इहां अन्यभी दृष्टान्त है, जैसे किसाणकै खेती बोहनेकी क्रियाका फल धान्य उपजाना सो प्रधान है । अर पराल घास चारा उपजना गौण फल है । तैसें मुनिनिके तपक्रियाका फल कर्मका नाश होना तो प्रधान है, अर देवेन्द्रादिकपद उपजावना गौण फल है । ऐसा जानना ॥ आगें संवरके कारणनिविर्षे आदिमें कह्या जो गुप्ति ताका स्वरूपके जाननेके अर्थि सूत्र कहै हैं ।
॥ सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः ॥४॥ याका अर्थ- काय वचन मनकी क्रियारूप जो योग तिनका सम्यक् प्रकार रोकना बसि करना, सो गुप्ति है । तहां योगका स्वरूप तो पहले कह्या सोही जानना । कायवाङ्मनःकर्म योगः है। इस सूत्रवि कह्या सो तिस योगकी स्वेच्छाप्रवृत्तिका मेटना, सो निग्रह कहिये । बहुरि सम्यक्पद है
सो विषयसुखकी अभिलाषाके अर्थि योगनिकी प्रवृत्तिका निग्रह करै तौ गुप्ति नाहीं, ऐसें जनावनेके | अर्थि है । यातें ऐसा अर्थ भया, जो, सम्यक् विशेषणकरि विशिष्ट अर जामें अधिक सक्लेश न
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