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॥ सर्वार्थसिदिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६३९ ॥
॥ॐ नमः सिद्धेभ्यः ।।
॥ आगे नवमा अध्यायका प्रारंभ है ॥
दोहा- आस्रव रोकि विधानतें, गहि संवर सुखरूप।
पूर्वबंधकी निर्जरा, करी नमू जिनभूप ॥ १॥ ऐसें मंगलके अर्थि जिनराजकू नमस्कार करि नवमां अध्यायकी आदिविर्षे सर्वार्थसिद्धि नाम टीकाकार कहै हैं, जो, बंधपदार्थ तो कह्या, अब याके अनंतर है नाम जाका ऐसा जो संवर नाम पदार्थ, ताका निर्देश करने का अवसर है, यातें तिसकी आदिमें यह सूत्र है
॥ आस्रवनिरोधः संवरः॥१॥ याका अर्थ- आसवका निरोध, सो संबर है। तहां नवीनकर्मका ग्रहण करना, सो | आस्रव है। सो तो पहले व्याख्यान कीया। ताका निरोध, सो संवर है । सो दोयप्रकार है,
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