Book Title: Sarvarthsiddhi Vachanika
Author(s): Jaychand Pandit
Publisher: Kallappa Bharmappa Nitve

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Page 782
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । नवम अध्याय ॥ पान ७६४ ॥ नाम है | कुशशब्द शवलका पर्यायशब्द है, दूसरा नाम है । इनका वार्तिक में ऐसाही विशेषण कीया है । ऋद्धिका अर यश अर शरीरका संस्कार अर विभूतिकेविषै तत्परता है । तहां भी यही आशय जानना, जो, ए दिगम्बर निर्बंथमुनि हैं तिनकै कछु अशुभ लौकिक संबंधी तौ व्यवहार है नाहीं धर्मानुराग है । सो मनकी प्रभावना संघसूं अनुराग है, ताके अर्थ ऋद्धिका अनुराग है, हमारे ऋद्धि पुरै तौ मार्गका बडा प्रभावना होय तथा मार्गका यश चाहै, तथा शरीरका संस्कारभी चाहै, संघकूं विभूतिसहित देखै, तब प्रसन्न होय ऐसा अनुराग शुभरागतें होय है, परमार्थतें यहभी परिग्रहही है । तातें यह विशेषण कीजिये है । ऐसा नाहीं जानना, जो, सर्वही परिग्रह राखे स्वेच्छा प्रवर्ते जो ऐसा होय तौ श्वेतांबरादि भेषीनिकीज्यों ये भी ठहरे, तो अखंडित व्रत है ऐसा विशेषण काकूं कहै ? नाममात्र भेषतें तो दिगम्बर निग्रंथमुनिनिकी पंक्ति में आवै नाहीं ॥ बहुरशील दो प्रकार हैं । प्रतिसेवनाकशील, कषायकुशील । तहां परिपूर्ण है मूलगुण उत्तरगुण जिनके, बहुरि नाही न्यारे भये हैं परिग्रहतें जे, बहुरि कोईप्रकार कारणविशेष उत्तरगुणकूं विराधनवाले हैं, ऐसें प्रतिसेवनाकुशील हैं, यहां परिग्रहशब्दका अर्थ गृहस्थवत् नाहीं लेणा । मुनिनिके कमंडलू पीछी पुस्तकका आलंबन है, गुरुशिष्यपणाका संबंध है, सो यहही परिग्रह है । For Private and Personal Use Only

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