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विनयविजय
_[४१ (३८) ' राग रामकली-तीन ताल अब क्युं न होत उदासी, हो आतम । अब क्युं नए आंकणी उलट पलट घट घेरी रही है, क्युं तुम आशा दासी हो० ॥१॥ निसि बासर उनसुं तुम खेलो, होत खलकमां हांसी । छोरो विषम विषय की आशा, ज्यु निकसें भव फांसी ॥ हो० ॥२॥ 'पूरण भई न कवहीं किसकी, दुरमति देत विसासी। जो छोरी नहीं सोबत इनकी, तो कहा भये संन्यासी हो०॥३॥ रूठ रही सुमति पटराणी, देखो हृदय विमासी । मुंझ रहे हो क्या माया में, अंते छोरी तुम जासी ॥ हो० ॥४॥ भाश करो एक विनय विचारी, अविचल पद अविनासी । आशा पूरण एक परमेसर, सेवो शिवपुरवासी ॥ हो० ॥ ५ ॥