________________
यशोविजय
(४६)
राग सारंग-तीन ताल
[५१]
जिऊ लाग रह्यो परभाव में, टेक ॥
सहज स्वभाव लखे नहिं अपनो, परियो मोह जंजाल में | जि०१ ॥
बंछें मोक्ष करे नहि करनी, दोलत ममता बाउ में । चहे अंध ज्युं जलनिधि तरवो, वेठो कांणे नाऊ में || जि० ॥२॥
परति पिशाची परवश रहेतो, खिन हुं न समरयो आउ में । आप बचाय सकत नहि मूरख, धोर विषय के धाउ में || जि०३ ||
पूर्व पुण्य धन सबहि ग्रसत हे, रहत न मूल बढाऊ में । तामें तुज केसे बनी आवे, नय व्यवहार के दाउ में ॥ जि०४ ॥
जस कहे अब मेरो मन लीनो, श्री जिनवर के पाउ में । चाहि कल्यान सिद्धि को कारन, ज्युं वेधक रस खाउ में || जि०५