Book Title: Bhajansangraha Dharmamrut
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Goleccha Prakashan Mandir

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Page 240
________________ २०६] धर्मामृत २२०. नरखे-देखे। सं० निरीक्षते-प्रा० निरिक्खए-नरखे। भजन ८६ वां २२१. पांगरे-अंकुरयुक्त हो। सं० प्र+अङ्कुरे-प्राङ्कुर-प्राङ्कुरयति । 'क' का 'ग' होने से और संयुक्त के पूर्व का हस्व होने से प्रा० 'पङ्गरेइ'। 'पङ्गुरेइ' से पांगरे । 'पांगरे' माने अंकुरयुक्त हो-विशेष पल्लवित हो "धन वरसे वन पांगरे" माने वृष्टि होती है तब वन अंकुरित होता है। 'पांगरवु (गुज०) क्रियापदका मूल 'प्राङ्कुर' में हैं। गूजराती भाषा में 'रस्सी' के अर्थ का सूचक 'पांगरा' शब्द है। उक्त 'पांगरा' की व्युत्पत्ति रस्सीसूचक सं० 'प्रग्रह' शब्द से करने की है। बालक को शयन करने के 'घोडिये की रस्सी को गूजराती में 'पांगरा' कहते हैं। २२२. वणश्यो-विनष्ट हुआ। सं० विनष्टः प्रा० विणसिओ-वणश्यो। गुजराती के 'विणस क्रियापदका मूल 'वि+नश' में हैं। २२३. वगडयु-विगड गया। सं० वि+घट-विघटित । प्रा० वि+घड-विघडिअ । 'वगडयं शब्द का मूल 'विघडिअ' शब्द में है और 'बिगडना'

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