________________
सिणगार
[१८९] होने पर कामदेव को आना ही पड़ता है और जिसका स्थान पुरुष और प्रमदा है उसका नाम 'शृङ्गार' । उक्त व्युत्पत्तियां है तो अर्थानुकूल परंतु शृङ्गार' का संबध 'शृङ्ग' से क्यों लगाया गया ? यह समज में नहि आता । हमारे ख्याल में 'शृङ्गार' के दो रूप है। आंतर और बाह्यः रसात्मक शृङ्गार आंतररूप है.
और रसात्मक शङ्गार को व्यक्त करने के लिए शरीर पर लगी हुई आभूषणोदि वेशभूषा का नाम बाह्य शृङ्गार है । आंतर और बाह्य शङ्गार में परस्पर निमित्त नैमित्तिक संबंध है। कभी आंतर बाह्य का निमित्त हाता है, कभी बाह्य भी आंतर का निमित्त होता है। 'शृङ्गार' का आविर्भाव आजकलका नहि, और रसों के आविर्भाव का इतिहास हो सकता है परन्तु 'शृङ्गार' के आविर्भाव का नहि; क्यों कि जब से सृष्टि हुई है तब से शृङ्गार की भी. सृष्टि है-प्राणी मात्र में उसकी व्याप्ति है। उसके रूपमें परिवर्तन होना स्वाभाविक है परन्तु दुनिया में कभी 'शृङ्गार नहि था' ऐसा कोई कह सकेगा? हम सुनते हैं कि हमारे पूर्वज मानव वृक्षवासी थे। वे जब शृङ्गार करते थे तब हडिओं के आपण पहनते थे और माथे पर सिंग भी लगाते थे । आजकल की मुल अरण्यवासियों के शृङ्गार के चित्रों को देखने से यह बात स्पष्ट रूप से ज्ञात होती है। इन शृङ्गों-सिंगों के आभूषण के काम से कदाच 'शृंगार' शब्द का संबंध श्रृंग से लगाया गया हो।