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धर्मामृत
'नातरां' शब्द में ' ज्ञाति + पर ' ये दा शब्दों का सम्भव हो सकता है । ज्ञातेः परम् ज्ञातिपरम् अर्थात् ज्ञाति से भिन्न । ज्ञातिपर - नातियर नातर - नातरं, नातरां । अथवा प्रशस्तो ज्ञातिः ज्ञातिरूपम् - नातिरूवं - नातिरूअं - नातिरूउं - नातरूं । कितनेक प्रयोगों में प्रशंसा वाचक शब्द निन्दा को व्यक्त करते 'हैं. इस तरह 'ज्ञातिरूप' का प्रशंसा सूचक 'रूप' प्रत्यय निन्दा को व्यक्त करता है ऐसा समजना चाहिए। जैसे 'महत्तर' शब्द का वाच्य, हरिजन है परन्तु शब्द प्रशस्त है इसी प्रकार ज्ञातिरूप' में समजना संगत लगता है । अथवा सं० ज्ञाति + इतर - प्रा० नाति + इतर - नातिअर - नातर - नातरुं । इस प्रकार - भी कल्पना हो सकती है ।
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११०. कवडी - कौडी ।
सं० कपर्दिका - प्रा० - कवडिआ
भजन : २६ वां
१११. वरमा - ब्रह्मा ।
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भजन २७ वां
प्रकार गति करना - चलना ।
कवडिआ - कवडी
कउडिआ - कौडी
समिति-पांच समितिः
१. ईर्ष्या समिति - दूसरे को लेश भी तकलीफ न हो इस