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निष्कुळानन्द
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राग सारंग — दीपचंदी ताल
त्याग न टके रे वैराग बिना, करीए कोटि उपाय जी अंतर उंडी इच्छा रहे, ते केम करीने तजाय जी ध्रुव ० वेष लीधो वैरागनो, देश रही गयो दूर जी उपर वेष अच्छो बन्यो, मांही मोह भरपूर जी काम क्रोध लोभ मोहनुं ज्यां लगी मूळ न जाय जी संग प्रसंगे पांगरे, जोग भोगनो थाय जी
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उष्ण रते अवनी विषे, बीज नव दीसे बहार जी घन वरसे वन पांगरे, इंद्रिय विषय आकार जी चमक देखीने लोह चळे, इंद्रिय विषय संजोग जी अणभेटे रे अभाव छे, भेटे भोगवशे भोग जी उपर तजे ने अंतर भजे, एम न सरे अरथ जी वणइयो र वर्णाश्रम थकी, अंते करशे अनरथ जो भ्रष्ट भयो जोगभोगथी, जेम बगड्युं दूध जी युं घृत मही माखण थकी, आपे धयुं रे अशुद्ध जी पळमां जोगी ने भोगी पळमां, पळमां गृहो ने त्यागी जी निष्कुलानंद ए नरनो, वणसमज्यो वैराग जी
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