Book Title: Tattvagyan Vivechika Part 01
Author(s): Kalpana Jain
Publisher: Shantyasha Prakashan

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Page 37
________________ में है; परंतु स्वर्ग में तो इन्द्रियजनित, विषय आदि सामग्री के अधीन, बाधा सहित, कर्मबंध का कारणभूत, अतृप्तिकारक, कषायमय, आंकुलतामय, हीनाधिकता सहित सापेक्ष सुख है, वास्तव में तो वह दुःख की कमी रूप सुखाभास है; तथा मोक्ष-सुख तो पूर्णतया अतीन्द्रिय, विषय आदि सामग्री से पूर्णतया निरपेक्ष, अव्याबाध, कर्मबंध से रहित, परमसंतुष्टिकारक, वीतरागतामय, निराकुल, अनंतकाल पर्यंत भी एकरूप ही रहनेवाला है - इसप्रकार ये दोनों सुख पूर्णतया पृथक्-पृथक् हैं। यह इस स्वभावगत पृथक्ता को नहीं पहिचानता है - यह इसकी मोक्ष तत्त्व संबंधी विपरीत मान्यता है। -- 3. यह स्वर्ग-सुख और सिद्ध-सुख की प्राप्ति का कारण भी एक ही मानता है। इसका ऐसा अभिप्राय है कि जिस धर्मसाधन का फल स्वर्ग है, उसी धर्मसाधन का फल मोक्ष है; अंतर मात्र इतना है कि जिसके धर्मसाधन कम होता है, वह स्वर्ग प्राप्त करता है और जिसके धर्मसाधन समग्र/परिपूर्ण होता है वह मोक्ष प्राप्त करता है; परंतु इसकी यह विपरीत मान्यता है; क्योंकि स्वर्ग का कारण प्रशस्तराग है और मोक्ष का कारण वीतराग भाव है। स्वर्ग तो कषाय की मंदतारूप शुभभावों से देवायु आदि कर्मों का बंध होने पर, उनके उदय में प्राप्त होता है; जबकि मोक्ष दशा तो निष्कषायरूप परिणामों से कर्मों का पूर्णतया अभाव हो जाने पर व्यक्त होती है। स्वर्ग पूर्वकृत अपराधों की सजा भोगने का स्थान होने से उसका कारण स्वरूप से भ्रष्टता रूप परलक्षी भाव है; जबकि मोक्ष पूर्ण निरपराधी दशा होने से उसका कारण परिपूर्ण स्वरूपलीनतामय शुद्धभाव है। स्वर्ग तो अणुव्रत, महाव्रत, शील, संयम, दया, दान, पूजा आदि विविध शुभभावों में से किसी भी शुभभाव द्वारा कोई भी मनुष्य, तिर्यंच प्राप्त कर सकता है; परंतु मोक्ष तो एक मात्र परिपूर्ण स्वरूपलीनता द्वारा वज्रवृषभनाराचसंहनन सम्पन्न शरीरवान कर्मभूमि का पुरुष ही प्राप्त कर सकता है – इत्यादि अनेकानेक रूप में दोनों के कारण पूर्णतया पृथक्-पृथक् होने से, एक ही कारण से दोनों की प्राप्ति मानना मोक्ष तत्त्व संबंधी विपरीत मान्यता है। प्रश्न 9: पुण्य को मुक्ति का कारण मानने में क्या आपत्ति है? इस मान्यता में कौन-कौन से तत्त्व संबंधी भूलें होंगी? ... उत्तरः पुण्य में पुण्य परिणामरूप शुभभाव, पुण्यकर्म का बंधरूप पुण्यबंध तथा उस बंध के उदय में प्राप्त पुण्य सामग्री/देव-शास्त्र-गुरु का समागम इत्यादि सभी कुछ सात तत्त्वों सम्बन्धी भूल /32

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