Book Title: Tattvagyan Vivechika Part 01
Author(s): Kalpana Jain
Publisher: Shantyasha Prakashan

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Page 110
________________ औपशमिक भाव क्षायिक भाव, ___ 1. इसमें कर्म मात्र उपशमित होते | इसमें वे पूर्णतया नष्ट हो जाते हैं। - हैं/दबते हैं। 2. इसके भेद कम हैं। इसके भेद अधिक हैं। 3. इसमें रहनेवाले जीवों की संख्या | इसमें उनकी संख्या अधिक है। . . कम है। 4. यह उत्पन्न होकर नियम से नष्ट | यह उत्पन्न होने के बाद नियम से नष्ट - होता है। नहीं होता है। 5. यह मात्र संसार दशा में ही होता | यह संसारी और सिद्ध दोनों दशाओं में रहता है। 6. यह मात्र छद्मस्थदशा में ही होता | यह छद्मस्थ और सर्वज्ञ – दोनों दशाओं में रहता है। 7. यह मात्र अन्तरात्माओं में होता है। यह अन्तरात्मा-परमात्मा – दोनों में ही होता है। 8. यह मात्र साधक जीवों के होता है। | यह साधक और साध्य - दोनों के होता 9. औपशमिक संबंधी उपशम मात्र | क्षायिक संबंधी क्षय आठों ही कर्मों का मोहनीय कर्म का होता है। । होता है। इत्यादि अनेक कारणों से दोनों परस्पर विरुद्ध स्वभावी होने के कारण ' औपशमिक के बाद क्षायिक को रखा गया है। . 3. इसके बाद तथा मध्य में क्षायोपशमिक भाव को रखने का कारण - इसके कुछ कारण निम्नलिखित हैं - क. कर्म के उपशम और क्षयमय मिश्ररूप क्षयोपशम दशा होने से तत्संबंधी भावों के बाद, क्षयोपशम संबंधी क्षायोपशमिक भाव रखा गया है । ख. पूर्वगत दोनों भावों की अपेक्षा इसके भेद तथा इसमें रहनेवाले जीवों की संख्या अधिक होने से इसे उनके बाद रखा गया है। तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक /105

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