Book Title: Tattvagyan Vivechika Part 01
Author(s): Kalpana Jain
Publisher: Shantyasha Prakashan

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Page 96
________________ उनका निमित्त-नैमित्तिक संबंध उस जीव के साथ नहीं होगा। कर्मरूप परमाणुओं की सत्ता नष्ट हो जाना, क्षय शब्द का अर्थ नहीं समझना; क्योंकि किसी भी विद्यमान वस्तु का कभी भी नाश नहीं होता है; मात्र उसकी अवस्थाएं बदल जाती हैं। इसप्रकार कर्म की अकर्मरूप दशा हो जाना ही कर्म के क्षय का अर्थ है। यह दशा आठों कर्मों की होती है। क्षायिक भाव के 9 भेदों का स्वरूप निम्नलिखित है - 1. क्षायिक-ज्ञान/केवलज्ञान - ज्ञानानन्दस्वभावी अपने भगवान आत्मा में परिपूर्ण लीनता से ज्ञानावरण कर्म की क्षयरूप दशा के समय व्यक्त हुए ज्ञान गुण के परिपूर्ण विकसित भाव को क्षायिक-ज्ञान कहते हैं। यह तीनकाल-तीनलोकवर्ती समस्त पदार्थों को; उनकी अपनी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावात्मक; द्रव्य, गुण, पर्यायात्मक; उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यात्मक सम्पूर्ण विशेषताओं को मात्र अपनी ही सामर्थ्य द्वारा प्रत्यक्षरूप से एक साथ जानता हुआ आत्मज्ञानमयी सर्वज्ञ केवलज्ञान कहलाता है। जगत का कोई भी पदार्थ किसी भी रूप में इस ज्ञान से अज्ञात/अजाना नहीं रह सकता है। इसमें विश्व की समस्त सत्ताओं का विशेष प्रतिभास होता है। 2. क्षायिक-दर्शन/केवलदर्शन - ज्ञान, दर्शन, आनन्द आदि अनन्त वैभव सम्पन्न अपने भगवान आत्मा में परिपूर्ण लीनता से, दर्शनावरण कर्म की क्षयरूप दशा के समय व्यक्त हुए दर्शनगुण के परिपूर्ण विकसित भाव को क्षायिक-दर्शन कहते हैं। यह तीनकाल-तीनलोकवर्ती समस्त पदार्थों को; उनमें कुछ भी भेद किए बिना, निर्विशेष, निर्विकल्प, सामान्यरूप से एक साथ अवलोकन करनेवाला आत्मदर्शनमयी सर्वदर्शी केवलदर्शन कहलाता है। इससे विश्व की समस्त सत्ताओं का सामान्य प्रतिभास होता है। 3. क्षायिक-दान - ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनन्त वैभव सम्पन्न अपने भगवान आत्मा में परिपूर्ण लीनता से, दानान्तराय कर्म की क्षयरूप दशा के समय व्यक्त हुए दानगुण के परिपूर्ण विकसित भाव को क्षायिक-दान कहते हैं। अपने शुद्ध स्वरूप का स्वयं को दान देने रूप वास्तविक दान और अनन्त जीवों को शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति में निमित्त होने, अपनी ओर से अनन्त जीवों को निश्चित कर देने रूप अभयदानमय औपचारिक दान के रूप में इस क्षायिक-दान का कार्य व्यक्त होता है। तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक /91

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