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विकल्पों का, व्यर्थ की भाग-दौड़ का उस पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता है। – यह सत्य तथ्य चारित्र के स्तर पर भी जीवन में समा जाने से अब इस व्रती श्रावक के मन में किसी भी प्रकार के पापारम्भ का परिणाम उत्पन्न नहीं होता है। यदि परिस्थितिवश कभी कुछ आरम्भ करना भी पड़े तो अत्यन्त विरक्त भाव से पूर्णतया विवेक पूर्वक, सावधानी रखते हुए अशक्य अनुष्ठान समझकर करता है।
यह व्रती श्रावक धन कमाने के कारणभूत व्यापार आदि का तो सर्वथा त्याग ही कर देता है। अपने संचित धन में से अपनी आवश्यकतानुसार कुछ धन को अपने पास रखकर शेष को स्त्री-पुत्रादि परिवार-कुटम्बीजनों में, धर्मायतनों में, दीन-दुखिओं में वितरित कर देता है। अपने लिए रखे हुए धन से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करता हुआ शेष बचे हुए को साधर्मिओं आदि के दुःखनिवारण आदि में लगाता है। - यदि अपने पास रखा हुआ धन चोरी आदि के माध्यम से नष्ट हो जाए तो पुनः कमाने का यत्न नहीं करता है, परिणामों में उदासीनभाव जागृतकर आगे ही बढ़ता है। ऐसे भावों युक्त जीव आरम्भ निर्वृत्त/त्याग नामक आठवीं प्रतिमाधारी श्रावक है। ___इसमें विशिष्ट स्वरूपस्थिरतारूप वीतरागता तो वास्तविक धर्म होने से निश्चय प्रतिमा है तथा व्यापार आदि आरम्भ नहीं करने रूप शुभभाव तथा तदनुकूल प्रवृत्तिआँ उस वीतरागता की निमित्त या सहचारी होने के कारण उपचार से व्यवहार प्रतिमा कहलाती हैं।
प्रश्न 15: परिग्रहत्याग प्रतिमा को स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः दर्शनमोहनीय, अनंतानुबंधी और अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क के अभाव में प्रगट हुए सम्यक् रत्नत्रयसम्पन्न देशसंयमी जीव के प्रत्याख्यानावरण संबंधी विकृतिओं के और भी अधिक मन्द हो जाने पर संसार, शरीर, भोगों के प्रति तीव्र अनासक्ति भाव हो जाने से तथा आत्मा के विशेष परिग्रहण पूर्वक आत्मवैभव में
और भी अधिक संतुष्ट हो जाने से, वह अपने पास रखे हुए परिग्रह में से भी अत्यल्प रखकर शेष सभी का त्याग कर देता है, यह परिग्रह त्याग प्रतिमा है। कविवर पं. बनारसीदासजी वहीं, छंद 69 द्वारा इसे इसप्रकार व्यक्त करते हैं - "
"जो दशधा परिग्रह को त्यागी, सुख सन्तोष सहित वैरागी। समरस संचित किंचित् ग्राही, सो श्रावक नौ प्रतिमावाही।।
पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं /72