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से यद्यपि दोनों में अपनी-अपनी स्वतंत्र योग्यता से एक साथ कार्य होता है; तथापि उपादान की मुख्यता से आत्मापरक और निमित्त की मुख्यता से कर्मपरक परिभाषा बन जाती है । जैसे – “उपशमेन युक्तः औपशमिकः - उपशम से युक्त भाव औपशमिक है । ” – यह परिभाषा निमित्त-नैमित्तिक संबंध की अपेक्षा है । " उपशमः प्रयोजनमस्येति औपशमिकः - उपशम है प्रयोजन जिसका वह औपशमिक है । " - यह परिभाषा आत्मारूप उपादान की मुख्यता से है; और “तेषामुपशमादौपशमिकः - उन कर्मों के उपशम से होनेवाला औपशमिक है । " - यह कर्म रूप निमित्त की मुख्यता से की गई परिभाषा है।
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इसप्रकार विवक्षा-भेद से प्रत्येक भाव की तीन-तीन परिभाषाएं दी गई हैं। प्रश्न 19: इन तीन परिभाषाओं का प्रयोजन क्या है ?
उत्तरः प्रतिसमय प्रत्येक द्रव्य में पर से पूर्ण निरपेक्ष रह, अपनी-अपनी स्वतन्त्र योग्यतापूर्वक कार्य हो रहा है। इसमें एक के द्वारा दूसरे में किसी भी प्रकार के . हस्तक्षेप के लिए कहीं कोई अवसर नहीं है; फिर भी जो जिसके लिए अनुकूल प्रतीत होता है, उसका उसके साथ बननेवाले सहज निमित्त नैमित्तिक संबंध का ज्ञान करा दिया जाता है। परस्पर पूर्णतया अकर्तृत्व होते हुए भी प्रतिसमय होनेवाले द्रव्यों के परिणमन का ज्ञान कराने के लिए इनकी परिभाषा दोनों की मुख्यता से की गई है।
नष्ट करने योग्य भावों को नष्ट करने की तथा प्रगट करने योग्य भावों को प्रगट करने की जिम्मेदारी, जवाबदारी का ज्ञान कराकर अन्तरोन्मुखी पुरुषार्थ की प्रेरणा देने के लिए इनकी परिभाषा आत्मा की मुख्यता से की गई है।
इनका वास्तविक निमित्त बताकर, अन्य पर की ओर से पूर्णतया दृष्टि हटाने के लिए; तथा ये पर निमित्तक भाव हैं, स्वाभाविक भाव नहीं होने से अपनत्व करनेयोग्य नहीं है, इनमें अपनत्व का भाव मिथ्यात्व है - यह ज्ञान कराने के लिए इनकी परिभाषा कर्म की मुख्यता से की गई है।
इसप्रकार विशिष्ट प्रयोजन सिद्ध करने के लिए औपशमिक आदि भावों की तीन प्रकार से परिभाषाएँ दी गई हैं।
प्रश्न 20: एक साथ किन जीवों के कितने और कौन-कौन से भाव पाए जाते हैं ?
उत्तरः बहिरात्मा, विराधक, मिथ्यादृष्टि जीवों के एक साथ पारिणामिक, औदयिक और क्षायोपशमिक – ये तीन भाव पाए जाते हैं । अन्तरात्मा, साधक, तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक / 107