Book Title: Tattvagyan Vivechika Part 01
Author(s): Kalpana Jain
Publisher: Shantyasha Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 143
________________ ... 9. कभी विषय-वासनामय इन्द्रिय-विषयों की इच्छारूप नदी का गहरा जल मुझ पर ऐसा चढ़ गया कि मैं अपनी सुध-बुध ही खो बैठा। पंचेन्द्रिय विषय-भोगों रूपी शराब को बारम्बार पीने से मुझमें पागलपन आ गया। मैं हित-अहित का विवेक करने में भी असमर्थ हो गया हूँ। ____10. हे भगवान ! मैंने सदा छल/माया आदि कषायों के वशीभूत हो असत्य/वस्तु-स्वभाव के विरुद्ध आचरण किया है। मेरे मन में अन्य की निन्दा करने के, चुगली करने के, अन्य को गाली देने के इत्यादि जो भी भाव उत्पन्न हुए, तदनुसार मुँह से भी उगला/वचनों से भी वैसा ही व्यवहार किया है। ____11. हे स्वामी ! अब मात्र यही चाह है कि मेरा मन अभिमान रहित पवित्र हो जाए, उसमें सदा सत्य का/वस्तु के वास्तविक स्वरूप का ही ध्यान चलता रहे। निर्मल जल से परिपूर्ण नदी के समान मेरे हृदय में भी सदा निर्मल ज्ञान की धारा प्रवाहित होती रहे। . 12. परमपूज्य मुनिराज, चक्रवर्ती, इन्द्र आदि के मन में भी जिस अनन्त वैभव सम्पन्न परमदेव/निज शुद्धात्मा का ध्यान रहता है; वेद-पुराण आदि चार अनुयोगमयी समग्र जिनवाणी. जिसका सदा यशोगान करती है, वह परमदेव निजशुद्धात्मा मेरे हृदय में भी सदा विद्यमान रहे। 13. जो दर्शन-ज्ञान स्वभावी है, जिसने सभी विषय-विकारों/विकृतिओं को नष्ट कर दिया है, जो उत्कृष्ट ध्यान में ही उपलब्ध होता है, वह परमात्मा परमदेव मेरे मन में वास करे। ___14. जो संसार के सभी संतापों को नष्ट कर देता है, जिसका ज्ञान समस्त विश्व को जाननेवाला है, योगीजन जिसे ध्यान द्वारा उपलब्ध करते हैं, वह महान देव मेरे मन में स्थित रहे। ____15. जो मुक्ति के मार्ग को/समस्त बन्धनों, पराधीनताओं से मुक्त हो स्वतन्त्र, स्वाधीन, परम सुखी होने के मार्ग/उपाय को बताता है; जन्म-मरण से पूर्णतया रहित है, समस्त कर्म कलंक से रहित और तीनकाल तीनलोकवर्ती सम्पूर्ण पदार्थों को देखनेवाला हैं, वह देव मेरे मन के निकट रहे/मेरा मन सदा उसमें ही स्थिर रहे । ___16. समस्त विश्व के प्राणी जिनके अधीन हैं, ऐसे वे राग-द्वेष जिसमें नहीं हैं; जो शुद्ध, इन्द्रियातीत और ज्ञान स्वरूपी है, वह परमदेव मेरे हृदय में वास करे। भावना बत्तीसी /138

Loading...

Page Navigation
1 ... 141 142 143 144 145 146