Book Title: Tattvagyan Vivechika Part 01
Author(s): Kalpana Jain
Publisher: Shantyasha Prakashan

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Page 142
________________ 1. हे भगवान ! मेरे मन में सभी जीवों के प्रति प्रेमभाव हो, गुणवान व्यक्तिओं के प्रति हर्ष / प्रसन्नता का, दुखी जीवों के प्रति दया / करुणा का और विपरीत बुद्धिवाले, वस्तु-स्वभाव को नहीं माननेवाले दुर्जनों के प्रति मध्यस्थता/समता का भाव सतत बना रहे। 2. हे भगवान ! जैसे तलवार म्यान से पूर्णतया पृथक् होने के कारण सरलता, सहजता से पृथक् हो जाती है; उसीप्रकार मुझे वह अनन्त आत्म-सामर्थ्य/स्व-पर भेदविज्ञान के बल पर अनंत पदार्थों में से स्वयं को पूर्णतया पृथक् करने की सामर्थ्य प्राप्त हो, जिससे मैं अपने अनन्त वैभव सम्पन्न आत्मा को इस शरीर से श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र रूप में पूर्णतया पृथक् कर सकूँ । 3. हे प्रभो ! मुझमें ऐसा साम्यभाव प्रगट हो जिससे मुझे सुख-दुःख, शत्रु-मित्र, काँच-कनक/सुवर्ण, वन-बगीचा, महल - कुटिया इत्यादि सभी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिओं में न तो ममत्व हो और न खेद - खिन्नता हो । 4. हे प्रभो ! आपने आत्म-स्थिरता के जिस सुन्दरतम मार्ग पर चलकर मोह, मान, विषय-वासना आदि विकारों को जीता है / नष्ट किया है; वही सुन्दर मार्ग मेरा भी अनुशीलन मार्ग बने; मैं भी उसी मार्ग पर चलकर स्वरूप - स्थिर रहूँ । 5. हे प्रभो ! अज्ञान, कषाय, प्रमाद आदि के वशीभूत हो मैंने एकेन्द्रिय आदि प्राणिओं की हिंसा की है। अब मैं विशुद्ध भाव से इसका प्रायश्चित्त करता हूँ; पुनः मैं ऐसा दुष्कृत्य नहीं करूँगा । पूर्वकृत मेरा यह दुष्कृत्य निष्फल हो जाए / मेरे शुद्ध भावों का निमित्त पाकर पूर्ववद्ध कर्म विना फल दिए ही समाप्त हो जाएं। 6. मैंने कषायों के वशीभूत हो जो भी मोक्षमार्ग से विरुद्ध प्रवृत्ति की है, खोटे मार्ग पर गमन किया है; वह सब मेरी कलुषता मेरे सद्भावों / सम्यक् परिणमन से नष्ट हो जाए । 7. हे प्रभो ! जैसे चतुर वैद्य अपनी चतुराई से विष को शान्त कर देता है; उसीप्रकार मैं भी अपने पापों को शान्त करने के लिए प्रारम्भ से लेकर अन्त पर्यंत अपने सभी दुष्कृत्यों की निन्दा - आलोचना करता हूँ । 8. मैंने सत्य, अहिंसा आदि व्रतों का पालन करने में भी अपने मन को मलिन रखा तथा व्रतों से विपरीत प्रवृत्ति करके शीलमय आचरण / सदाचार का भी लोप कर डाला / स्वच्छन्द प्रवर्तन करने लगा । तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक / 137

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