Book Title: Tattvagyan Vivechika Part 01
Author(s): Kalpana Jain
Publisher: Shantyasha Prakashan

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Page 106
________________ ‘परिणाम' शब्द के साथ संबंध वाचक ठञ् प्रत्यय का प्रयोग होने से ‘पारिणामिक' शब्द बनता है। यह भाव कर्म की उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि सभी दशाओं से पूर्णतया निरपेक्ष, अहेतुक है; किसी पुरुषार्थ या प्रमाद का परिणाम नहीं है; किसी सुकृत या दुष्कृत का फल नहीं है; अन्य किन्हीं बाह्य संयोग जन्य भी नहीं है; पूर्णतया अकारण है। वैसे तो यह भाव सभी द्रव्यों में है; पर जीव की अपेक्षा इसके तीन भेद हैं - जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व । जीवत्व - कर्मादि समस्त परपदार्थों से पूर्ण निरपेक्ष अपने भाव प्राणों से सदा जीवित रहने का भाव/जीवित रहना/चेतनामय रहना, जीवत्व भाव है। इसके दो भेद हैं - शुद्ध जीवत्व और अशुद्ध जीवत्व । ___अनादि-अनन्त, निष्क्रिय, जीवत्व आदि अनन्त वैभव सम्पन्न, ध्यान का परम ध्येय भगवान आत्मा शुद्ध जीवत्व है तथा प्राण-धारण की पर्याय रूप प्रगट योग्यता अशुद्ध जीवत्व है। . 2. भव्यत्व – पर्याय में सम्यक् रत्नत्रय प्रगट करने की योग्यता भव्यत्व है। 3. अभव्यत्व – पर्याय में सम्यक् रत्नत्रय प्रगट नहीं कर सकने की योग्यता अभव्यत्व है। इसप्रकार पर से पूर्ण निरपेक्ष, स्वभावमात्र पारिणामिक भाव के तीन भेद हैं। प्रश्न 13: इन पाँच भावों में से कौन सा भाव किनके पाया जाता है ? उत्तरः ये भाव निम्नलिखित जीवों के पाए जाते हैं अर्थात् इन पाँच भावों के स्वामी/धारक इसप्रकार हैं 1. पारिणामिक भाव वस्तु मात्र का स्वभाव होने से वह सभी वस्तुओं में पाया जाता है; कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है, जिसमें पारिणामिक भाव नहीं हो; परन्तु यहाँ मात्र जीव के भावों की ही चर्चा है। यह भाव प्रत्येक जीव में है। संसारी-सिद्ध, त्रसस्थावर, सैनी-असैनी, बादर-सूक्ष्म आदि सभी जीव पारिणामिक भावमय हैं। ध्यान का परमध्येयभूत शुद्धात्मा प्रत्येक जीव में प्रत्येक पर्याय में सदा विद्यमान है। 2. औदयिक भाव सभी संसारी जीवों के विद्यमान है; एकमात्र सिद्ध भगवान ही इससे रहित हैं। मिथ्यादृष्टि, संसारी सम्यग्दृष्टि; बहिरात्मा, अंतरात्मा, सकल परमात्मा; अरहन्त, आचार्य, उपाध्याय, साधु परमेष्ठी सभी सदा औदयिक भाव से सहित हैं। तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक /101

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