Book Title: Tattvagyan Vivechika Part 01
Author(s): Kalpana Jain
Publisher: Shantyasha Prakashan

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Page 119
________________ वर्णित आगामी भवों की चर्चा; करणानुयोग में वर्णित युग-परिवर्तन आदि की चर्चाएं; चरणानुयोग में वर्णित उपदेश शैली, देशनालब्धि, व्रत, शील, संयम आदि की चर्चाएं; द्रव्यानुयोग में वर्णित वस्तु का उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यमय स्वरूप, ज्ञान की हीनाधिकता, भेदविज्ञान, आत्मानुभव आदि की चर्चाएं इत्यादि किसी भी प्रकार की परिवर्तनवाली चर्चाएं प्रध्वंसाभाव को अस्वीकार करने पर सम्भव नहीं हो सकेंगी। लौकिक शिक्षण, वैज्ञानिक शोध-खोज, उद्योग-धन्धे, खेती आदि किसी भी प्रकार का परिवर्तन संबंधी कार्य प्रध्वंसाभाव को नहीं मानने पर सम्भव नहीं हो सकेगा। निष्कर्ष यह है कि प्रध्वंसाभाव को नहीं मानने पर लौकिक-अलौकिक किसी भी प्रकार का भविष्यकालीन परिवर्तन स्वीकार करना सम्भव नहीं होगा। सभी की वर्तमान दशा को ही अनन्तकालिक मानना पड़ेगा; पुरुषार्थ पूर्णतया कुण्ठित हो जाएगा; जो कि वस्तु-व्यवस्था के विरुद्ध है। प्रश्न 8: प्रध्वंसाभाव को मानने से होनेवाले लाभ स्पष्ट कीजिए। उत्तरः प्रध्वंसाभाव को मानने से होनेवाले कुछ प्रमुख लाभ निम्नलिखित हैं - 1. वर्तमान में कैसी भी दीन-हीन दशा क्यों न हो, उसका आगामी पर्याय में अभाव है - यह समझ में आ जाने पर पामरता नष्ट होकर अन्तरोन्मुखी पुरुषार्थ करने का भाव जागृत होता है। 2. इसी के बल पर अन्य को भी उसके गलत कार्यों से तुच्छ मानने का भाव समाप्त हो जाता है; क्योंकि वह भी अच्छा हो सकता है। 3. अपनी अच्छी पर्यायों का भी आगामी पर्यायों में प्रध्वंसाभावरूप अभाव है - यह समझ में आ जाने पर उनसे स्वयं को बड़ा मानने का भाव समाप्त होकर, उनके प्रति सहज समताभाव जागृत होता है तथा उनसे भी सतत भेदविज्ञान करते हुए अन्तरोन्मुखी पुरुषार्थ करने का प्रयास चलता रहता है। 4. इसी समझ के बल पर अन्य की भी वर्तमान में सत्प्रवृत्तिओं को देखकर, उनके प्रति भी सहज समता ही रहती है। वर्तमान में यथायोग्य विनय आदि व्यवहार करने पर भी भावी योजनाओं में उलझकर गृहीत मिथ्यात्व पुष्ट करने का भाव समाप्त हो जाता है। 5. जब हमारी ही वर्तमान पर्याय प्रध्वंसाभाव के कारण हमारी आगामी पर्याय का कुछ भी नहीं कर सकती है; तब फिर अन्य कोई हमारा क्या कर सकता है? चार अभाव /114

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