Book Title: Tattvagyan Vivechika Part 01
Author(s): Kalpana Jain
Publisher: Shantyasha Prakashan

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Page 56
________________ सम्यग्ज्ञान और उसमें ही लीनतारूप सम्यक्चारित्रमय सम्यक् रत्नत्रय ही दुःखों से छूटने का उपाय होने से मोक्षमार्ग है। आचार्य उमास्वामी देव ने मोक्षशास्त्र के प्रथम सूत्र में लिखा भी है – “सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः – सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की एकता ही मोक्षमार्ग है।" यह जीव सम्यक् रत्नत्रय सम्पन्न होने पर भी विशेष स्वरूपलीनता का अभाव होने से अविरत सम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थानवर्ती कहलाता है। कर्मों की अपेक्षा इसे इसप्रकार समझ सकते हैं - दर्शनमोहनीय एक अथवा मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व - ये दो या मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति रूप दर्शनमोहनीय की तीन तथा अनन्तानुबंधी क्रोध-मान-माया-लोभ - इन पाँच, छह या सात प्रकृतिओं का कथंचित् अभाव हो जाने से जिस जीव को सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्त्वाचरणरूप सम्यक्चारित्र तो प्रगट हुआ है; परन्तु अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन संबंधी क्रोध-मान-माया-लोभ का उदय होने से संयमाचरण चारित्र प्रगट नहीं हुआ है; वह जीव अविरत/असंयत सम्यग्दृष्टि कहलाता है। . कविवर पं. बनारसीदासजी इसे निम्नलिखित शब्दों द्वारा व्यक्त करते हैं - "सत्य प्रतीति अवस्था जाकी, दिन-दिन रीति गहै समता की। छिन-छिन करै सत्य को साकौ, समकित नाम कहावै ताकौ।। (नाटक समयसार, चतुर्दशगुणस्थानाधिकार, छंद 27) जिसकी प्रतीति में आत्मा का सत्य स्वरूप आ गया है, प्रतिदिन समता की पद्धति को ग्रहण करता है/उत्तरोत्तर समताभाव को बढ़ाता जाता है, प्रतिक्षण सत्य का पक्ष लेता है, वह अविरत सम्यग्दृष्टि जीव है।" इस आत्मानुभवी जीव का आत्मोन्मुखी पुरुषार्थ मंद होने के कारण सतत प्रयत्नशील रहने पर भी दीर्घ अंतराल के बाद ही अत्यल्प समय के लिए यह स्वरूपलीन हो पाता है; अतः इसके अव्रत रूप परिणाम बने रहते हैं। बुद्धिपूर्वक हिंसादि पापों का तथा विषय-भोगों का प्रतिज्ञा पूर्वक त्याग यह नहीं कर पाता है। आत्मोन्मुखी विशिष्ट पुरुषार्थ द्वारा जब यह जीव आत्मस्वरूप में विशेष स्थिर हो जाता है, तब उपर्युक्त पाँच, छह या सात प्रकृतिओं के साथ ही अप्रत्याख्यानावरण क्रोध-मान-माया-लोभ के उदय का भी इसके अभाव हो जाने से आत्मा का निर्विकल्प अनुभव कुछ शीघ्र-शीघ्र होने लगता है तथा स्वरूप-स्थिरता का समय भी बढ़ जाता तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक /51

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