Book Title: Tattvagyan Vivechika Part 01
Author(s): Kalpana Jain
Publisher: Shantyasha Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 97
________________ 4. क्षायिक लाभ ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनन्त वैभव सम्पन्न अपने भगवान् आत्मा में परिपूर्ण- लीनता से लाभान्तराय कर्म की क्षयरूप दशा के समय व्यक्त हुए लाभ गुण के परिपूर्ण विकसित भाव को क्षायिक लाभ कहते हैं। अपने शुद्ध स्वरूप का स्वयं को लाभ होना वास्तविक लाभ और अन्य मनुष्यों को अनुपलब्ध, शारीरिक बल को स्थिर रखने में कारणभूत, अत्यन्त शुभ, सूक्ष्म नोकर्म रूप परिणमित होनेवाले अनन्त पुद्गल परमाणुओं का प्रति समय संबंध होने रूप औपचारिक लाभ के रूप में इस क्षायिक लाभ का कार्य व्यक्त होता है । - 5. क्षायिक-भोग – ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनन्त वैभव सम्पन्न अपने भगवान आत्मा में परिपूर्ण- लीनता से भोगान्तराय कर्म की क्षयरूप दशा के समय व्यक्त हुए भोग गुण के परिपूर्ण विकसित भाव को क्षायिक-भोग कहते हैं। अपने शुद्ध स्वभाव का स्वयं को सतत भोग होना वास्तविक भोग और पुष्प वृष्टि आदि विशिष्ट अतिशयों की प्राप्ति मय औपचारिक भोग के रूप में इस क्षायिक भोग का कार्य व्यक्त होता है। 6. क्षायिक-उपभोग – ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनन्त वैभव सम्पन्न अपने भगवान आत्मा में परिपूर्ण-लीनता से उपभोगान्तराय कर्म की क्षयरूप दशा के समय व्यक्त हुए उपभोग गुण के परिपूर्ण विकसित भाव को क्षायिक उपभोग कहते हैं। अपने शुद्ध स्वभाव का स्वयं को सतत उपभोग होने रूप वास्तविक उपभोग और छत्र, चँवर, सिंहासन आदि विशिष्ट विभूतिओं की प्राप्तिमय औपचारिक उपभोग के रूप में इस क्षायिक उपभोग का कार्य व्यक्त होता है । 7. क्षायिक-वीर्य – ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनन्त वैभव सम्पन्न अपने भगवान आत्मा में परिपूर्ण - लीनता से वीर्यान्तराय कर्म की क्षयरूप दशा के समय व्यक्त हुए वीर्य गुण के परिपूर्ण विकसित भाव को क्षायिक-वीर्य कहते हैं। अपने शुद्ध स्वभाव में उत्कृष्ट सामर्थ्यरूप से प्रवृत्तिमय वास्तविक वीर्य और विश्व की समस्त परिस्थितिओं के ज्ञाता-दृष्टा होने पर भी अपने स्वभाव से विचलित नहीं होने रूप औपचारिक वीर्य रूप में इस क्षायिक वीर्य का कार्य व्यक्त होता है । 8. क्षायिक - सम्यक्त्व - ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनन्त वैभव सम्पन्न अपने भगवान आत्मा की अपनत्वरूप में दृढ़तम प्रतीति से, दर्शनमोहनीय की तीन ● और अनन्तानुबन्धी चतुष्क - इन सात प्रकृतिओं की क्षय रूप दशा के समय व्यक्त हुए श्रद्धा गुण के परिपूर्ण विकसित भाव को क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं । पंचभाव / 92

Loading...

Page Navigation
1 ... 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146