Book Title: Tattvagyan Vivechika Part 01
Author(s): Kalpana Jain
Publisher: Shantyasha Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 122
________________ 2. अन्योन्याभाव होने से एक स्कन्ध दूसरे स्कन्ध का कुछ भी करने में समर्थ ही नहीं है; यह समझ में आ जाने से शारीरिक रोग नष्ट करने के लिए, शरीर को पुष्ट करने के लिए अशुद्ध औषधिओं, अशुद्ध / अभक्ष्य पदार्थों के सेवन का भाव नष्ट जाता है । नीति, 3. इसीप्रकार पदार्थों में मिलावट आदि तथा धन आदि पृथक्-पृथक् स्कन्ध होने से मिलावट से धन/कमाई का कुछ भी संबंध नहीं है - यह समझ में आ जाने पर अन्याय, अनीति, असदाचार आदि दुष्प्रवृत्ति नष्ट होकर जीवन न्याय, सदाचार सम्पन्न हो जाता है । 4. इसी अन्योन्याभाव की समझ के बल पर सभी स्कन्धों की स्वतन्त्रता का ज्ञान होने से पर-कर्तृत्व का भाव नष्ट हो जाता है । इत्यादि अनेकानेक लाभ इस प्रकरण को समझने से प्राप्त होते हैं । प्रश्न 12ः अत्यन्ताभाव का स्वरूप स्पष्ट कीजिए । उत्तरः “कालत्रयापेक्षाभावोऽत्यन्ताभावः - तीन काल की अपेक्षा नहीं होना, अत्यन्ताभाव है।” द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावात्मक एक वस्तु का वैसी ही अन्य वस्तु में नहीं होना अत्यन्ताभाव है । ‘अत्यन्ताभाव’ शब्द अत्यन्त और अभाव – इन दो शब्दों से मिलकर बना है। अत्यन्त=पूर्णतया/सर्वथा, अभाव=नहीं होना; अर्थात् एक वस्तु का दूसरी वस्तु में पूर्णरूप से कभी भी नहीं होने को अत्यन्ताभाव कहते हैं । जैसे एक जीव का अन्य जीव में नहीं होना, जीव का पुद्गल आदि अन्य द्रव्यों में नहीं होना, एक परमाणु का दूसरे परमाणु में नहीं होना, पुद्गल का जीवादि अन्य द्रव्यों में नहीं होना अत्यन्ताभाव है । प्रश्न 13ः अत्यन्ताभाव को नहीं मानने पर आनेवाली समस्याओं को स्पष्ट कीजिए । उत्तरः अत्यन्ताभाव को नहीं मानने पर सब द्रव्य सब रूप हो जाएंगे; किसी का कोई अपना स्वरूप नहीं रहेगा । जाति - अपेक्षा से छह और संख्या - अपेक्षा से अनन्तानन्त द्रव्यों की सिद्धि नहीं हो सकेगी। ऐसा होने पर संसार और सिद्ध दशा सिद्ध नहीं होगी, आत्मा-परमात्मा सिद्ध नहीं होंगे; तब फिर धर्म-कर्म की, उपदेश आदि की, सदाचरण आदि की, भेदविज्ञान आदि की, आत्मोन्मुखी पुरुषार्थ आदि की आवश्यकता ही सिद्ध नहीं हो सकेगी। जड़ और चेतन पृथक्-पृथक् सत्ताएं तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक / 117

Loading...

Page Navigation
1 ... 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146