Book Title: Swarnagiri Jalor Author(s): Bhanvarlal Nahta Publisher: Prakrit Bharati Acadmy View full book textPage 6
________________ प्रस्तावना इतिहास हमारे गौरवशाली अतीत साँस्कृतिक, सामाजिक और समृद्धि का एक उद्बोधक दर्पण है। अपनी सर्वाङ्गीण उन्नति का प्रेरक महान् तत्व होने के साथ-साथ लुप्तावशिष्ट पुरातत्त्व का अदृश्य साकार प्रारूप है। प्राकृतिक प्रकोप और विधर्मी यवन शासकों द्वारा सर्वथा नष्ट या परिवर्तित स्वरूप का हृदय विदारक बर्बरता पूर्ण स्मृति विस्मृति का अधिस्थान है। यवनों ने भारत में पदार्पण करते ही अनेक नगरों का विनाश कर दिया था। महाकवि धनपाल ने उन नगरों व तीर्थमन्दिरादि को नष्ट करने/आशातना करने का उल्लेख सत्यपुर महावीरोत्साह में किया है। उन्होंने श्रीमाल माल देश, अणहिलपाटक, चन्द्रावती, देवलवाड़ा, सोमेश्वर, कोरिंट, श्रीमालनगर, धार, आहाड़ नराणा, विजयकोट, पालीताना, आदि स्थानों को गजनी आदि म्लेच्छों ने भंग किया जिसका उल्लेख किया है इतः पूर्व जोग नामक किसी राजा ने साचोंर की महावीर प्रतिमा को हाथी घोड़ों से खींचने का एवं कुल्हाड़ी से प्रभु प्रतिमा को भंग करने का प्रयत्न किया था। यह राजा कौन था ? इतिहास इस विषय में मौन है सम्भव है दक्षिण भारत का कोई जैनधर्म का द्रोही है। किन्तु मुस्लिम राजाओं द्वारा धनपाल के समय तक जालोर-स्वर्णगिरि पर आक्रमण होने का कोई उल्लेख नहीं मिलता। स्वर्णगिरि कनकाचल आदिनामों से प्रसिद्ध तीर्थ जालोर नगर से बिल्कुल संलग्न है। यह पर्वत १२०० फुट ऊंचा है इस तीर्थ की स्थापना को लगभग दो हजार वर्ष होने आये हैं। यहाँ का यक्षवसति जिनालय विक्रम संवत् १२६ से १३५ के बीच स्थापित हुआ था। स्वर्णगिरि का दुर्ग ८०० गज लम्बा और ४०० गज चौड़ा है। पहाड़ की चढ़ाई लगभग १॥ मील है। यहाँ करोड़पति लोग ही निवास करते थे ९९ लाख के धनाढ्य के लिए यहाँ निवास स्थान नहीं मिलता। नाहड़ राजा के निर्मापित यक्षवसति नामक गगनचुम्बी महावीर मन्दिर के सिवाय यहाँ अष्टापद प्रासाद, कुमर विहार ( संवत् १२२२) आदि अनेक मंदिरों का निर्माण हुआ था। श्रीदाक्षिण्यचिन्ह उद्योतनसूरि ने संवत् ८३५ में जावालिपुर के ऋषभदेव जिनालय में कुवलयमाला ग्रन्थ की रचना की थी। __ प्रतिहारों के राज्य के पश्चात् चौहान वंश के राज्य तक यह तीर्थ उन्नति के शिखर पर आरूढ़ था । यहाँ कई जिनालयों का निर्माण हुआ था। कुमरविहारPage Navigation
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