Book Title: Shishupal vadha Mahakavyam
Author(s): Gajanan Shastri Musalgavkar
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 128
________________ ४६ शिशुपालवधम् लिये, फलतः लज्जा के भार से अत्यन्त झुके हुए अपने मस्तक को वह किसी तरह धारण कर सका । ) प्रसङ्ग - प्रस्तुत श्लोक में रावणकृत सूर्यविजय का वर्णन है । स्पृशन्सशङ्कः समये शुचावपि स्थितः कराभैरसमप्रपातिभिः ॥ अधर्म धर्मोदक बिन्दुमौक्तिकैरलञ्चकाराऽस्य वधूरहस्करः ॥ ५८ ॥ स्पृशनिति ॥ अहः करोतीत्यहस्करः सूर्यः । ' दिवाविभानिशा -- इत्यादिना प्रत्ययः । कस्कादित्वात्सत्वम् । शुचौ समये प्रीष्मकाले अनुपहते आचारे च स्थितोऽपि । 'शुचिः शुद्धेऽनुपहते वङ्गाराषाढयोरपि । ग्रीष्मे हुतवहेऽपि स्यात् —' इति विश्वः । 'समयाः शपथाचारकालसिद्धान्त संविदः' इत्यमरः । असमग्रपातिभिः । सङ्कुचित वृत्तिभिरित्यर्थः । कराणामशूनां हस्तानां चायैः । 'बलिहस्तांशवः कराः' इत्यमरः । सशङ्कः स्पृशन् । अविश्वासभयादिति भावः । अघर्मा अनुष्णा धर्मोदकबिन्दवः । 'मन्धोदन - ' ( ६ । ३६० ) इत्यादिना विकल्पादक शब्दस्योदादेशाभावः । तैरेव मौक्तिकरस्य वधूरलयकार | ग्रीष्मे तद्भवान्नासह्यं तपतीत्यर्थः । अत्र प्रस्तुत सूर्य विशेषणमात्र साम्यादप्रस्तुत प्रसाधकप्रतीतेः समासोक्तिरलङ्कारः ॥१६८॥ अम्ययः - अहस्करः शुचौ समये स्थितः अपि असमप्रपातिभिः हरायैः सशङ्कं स्पृशन् अधर्मधर्मोदक बिन्दुमौक्तिकैः अस्य वधूः अलञ्चकार ॥ ५८ ॥ हिन्दी अनुवाद - सूर्य ग्रीष्मकाल में स्थित होकर भी संकुचित किरणों के अग्र भागों से ( रावण के भय के कारण ) सशङ्क होकर स्पर्श करते हुए शीतल स्वेदबिन्दु रूपी मोतियों से रावण की स्त्रियों को अलंकृत करता था ॥ ५८ ॥ ( जैसे कोई राज-सेवक मर्यादा में रहता हुआ भी इस शंका से कि कहीं मैं चपलेन्द्रिय न समझा जाऊँ, अधिक हाथ बढ़ाते हुए देखकर राजा कहीं रुष्ट न हों, अतः संकुचित तथा हलके हाथों के अग्रभाग से राज-पत्नियों का शृंगार करता है, उसी प्रकार सूर्य ग्रीष्मऋतु होते हुए भी इस आशंका से कि कहीं रावण रुष्ट न हो जाय, अत्यन्त कोमल किरणों से उसकी पत्नियों के शरीर को स्वेद बिन्दुरूपी मोतियों से अलंकृत करता था ) । प्रसङ्ग - प्रस्तुत श्लोक में नारदजी ने कहा कि चन्द्रमा भी रावण की सेवा में रत था । कलासमग्रेण गृहानमुञ्चता मनस्विनीरुत्कयितुं पटीयसा । विलासिनस्तस्य वितन्वता रतिं न नर्मसाचिन्यमकारि नेन्दुना ॥ ५९ ॥

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