Book Title: Shishupal vadha Mahakavyam
Author(s): Gajanan Shastri Musalgavkar
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 187
________________ द्वितीयः सर्गः १०५ (सां. का० ३७)। वैसे ही आप (श्रीकृष्णा) युद्ध में उपस्थित होकर केवल देखते रहें, सेना ही (बुद्धि जैसी शत्रु वर्ग का संहार करेगी, विजय प्राप्त करेगी, किन्तु आप (श्रीकृष्ण ) स्वामी होने के कारण विजय आपकी कहलायगी । 'श्रीकृष्ण ने शत्रु-वर्ग का संहार किया' ऐसा कहा जायगा ॥ ५९ ।। अथ परस्य व्यसनमाह हते हिडिम्बरिपुणा राशि द्वैमातुरे युधि । चिरस्य मित्रव्यसनी सुदमो दमघोषजः ॥ ६॥ हते इति ॥ हिडिम्बरिपुणा भीमेन द्वयोर्मात्रोरपत्यं पुमान्द्वैमातुरः। 'मातुरुत्संख्यासम्भद्रायाः' (४।१।११५ ) इत्यण्प्रत्ययः उकारश्चान्तादेशो रेफपरः। तस्मिन् राज्ञि जरासन्धे । स हि द्वाभ्यां पत्नीभ्यामर्धशः प्रसूतो जरया नाम पिशाच्या सन्धितश्चेति कथयन्ति । युधि हते सति चिरस्य चिरकालेन । 'चिराय चिररात्त्राय चिरस्याद्याश्चिरार्थकाः' इत्यमरः। मित्रव्यसनी मित्रभ्रंशवानिति यावत् । 'व्यसनं 'विपदिभ्रंशे' इत्यमरः । दमघोषाज्जातो दमघोषजश्चैद्यः सुखेन दम्यत इति सुदमः । एकाकित्वात्सृसाध्य इत्यर्थः ॥ ६ ॥ प्रसङ्ग-प्रस्तुत श्लोक में बलराम जी शत्रु-विपत्ति का उल्लेख करते हैं। अन्वयः-हिडिम्परिपुणा द्वैमातुरे राज्ञि युधि हते ( सति ) चिरस्य मित्रव्यसनी दमघोषजः सुदमः॥ ६॥ हिन्दी अनुवाद-भीम के द्वारा युद्ध में जरासन्ध के मारे जाने पर चिरकाल से मित्र के अभाव में निर्बल हुए शिशुपाल को सरलता से जीता जा सकता है ( अर्थात् शिशुपाल पर आक्रमण करने का यही अवसर है)॥ ६०॥ प्रसङ्ग-प्रस्तुत श्लोक में बलराम जी नीतिज्ञों के विचार का समर्थन करते हुए कहते हैं कि___ कष्टश्चायं पक्षोऽभ्युपेत्यवादेनोक्तः, वस्तुतस्तु शूराणामग्रिमपक्ष एवेष्टः शास्त्रसंवादी । यथाह कामन्दक: 'यदा समस्तं प्रसभं निहन्तुं पराक्रमादूजितमप्यमित्रम् । तदाऽभियायादहितानि कुर्वन्नुपान्ततः कर्षणपीडनानि' ॥ इति । इत्यभिप्रेत्याह नीतिरापदि यद्गुम्यः परस्तन्मानिनो हिये । विधुर्विधुन्तुदस्येव पूर्णस्तस्योत्सवाय सः॥ ६१ ॥ नीतिरिति ॥ परः शत्रुरापदि गम्यो गमनाहः नीतिरिति यत् तदापदि गमनं

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