Book Title: Shishupal vadha Mahakavyam
Author(s): Gajanan Shastri Musalgavkar
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 199
________________ द्वितीयः सर्गः ११७ स्पृशन्तीति ॥ हे कृष्ण ! तीक्ष्णाः निशितप्रज्ञाः शरवच्छरेण तुल्यं स्तोकमल्पमेव स्पृशन्ति, अन्तः कार्यस्य चान्तरं विशन्ति 1 अल्पायासेन बहु कार्य साधयन्तीत्यर्थः । बहुस्पृशा व्यापिना, स्थूलेन मन्देन वृहता च अश्मनोपलेन तुल्यमश्मवत् । तेन तुल्यं क्रिया चेद्वतिः (५।१।११५) । वहि रेव । कार्यं स्याकार्यंस्य चेति भावः । स्थीयते स्थितिः क्रियते । मूढो हि अल्पस्य हेतोर्बहु प्रयासं करोति । मूषकग्रहणाय शिखरिखननं परिहासास्पदं भवतीति भावः । तद्धितगतेयमुपमा ॥ ७८ ॥ अन्वयः - ( हे कृष्ण ! ) तीचणाः शरवत् स्तोकं स्पृशन्ति अन्तः च विशन्ति । बहुस्पृशा अपि स्थूलेन अश्मवत् बहिः स्थीयते ॥ ७८ ॥ हिन्दी अनुवाद - कुशाग्र बुद्धिवाले पुरुष अल्प अवसर पाकर बाण की तरह भीतर प्रविष्ट हो जाते हैं अर्थात् तीक्ष्ण बुद्धि वाले कार्य के तत्व में अवगाहन करते हैं कम बोलते हुए भी कार्यंतस्वरूपी शरीर को जान लेते हैं । और स्थूलबुद्धिवाले पुरुष पत्थर की तरह बाहर अधिक स्थान घेरकर भी शरीर के भीतर प्रविष्ट नहीं हो पाते (अर्थात् मूढ़ अल्पप्राप्ति के लिये बहुत प्रयास करते हैं ) प्रस्तुत श्लोक में उपमालङ्कार है ।। ७८ ।। प्रसङ्ग — प्रस्तुत श्लोक में उद्धवजी मूर्ख और कुशल पुरुषों के स्वभाव में अन्तर बतलाते हैं आरभन्तेऽल्पमेवाश्चाः कामं व्यग्रा भवन्ति च । महारम्भाः कृतधियस्तिष्ठन्ति च निराकुलाः ॥ ७९ ॥ आरभन्त इति ॥ किव अज्ञा अल्पं तुच्छमेवारभन्ते प्रक्रमन्ते काममत्यन्तं व्यप्राः त्वरिताश्च भवन्ति । न च पार गच्छन्तीति भावः । कृतधियः शिक्षितबुद्धयस्तु महारम्भा महोद्योगा भवन्ति निराकुला अव्यग्राश्च भवन्ति । पारं गच्छन्तीति भावः ॥ ७६ ॥ अन्वयः - अज्ञाः अल्पम् एव आरभन्ते, ( परं ) कामं व्यग्राः च भवन्ति । कृतधियः, महारम्भाः ( अथ ) निराकुलाः च तिष्ठन्ति ।। ७९ ।। हिन्दी अनुवाद - मूढ़ पुरुष ( अल्पज्ञ ) तुच्छ कार्य के करने में ही ( दीपक के समान ) अत्यन्त व्याकुल हो जाते हैं ( वे अपना कार्य सम्पन्न नहीं कर पाते ) और शिक्षित अर्थात् शास्त्रपरिणत बुद्धिमान् पुरुष बड़े-बड़े कार्यों को करते हुए भी अन्य ( सूर्य के समान ) निराकुल रहते हैं । अर्थात् वे अपना कार्य सम्पन्न कर लेते हैं ।। ७९ ।। प्रसङ्ग — प्रस्तुत श्लोक में उद्धवजी कहते हैं कि बुद्धिमान् होनेपर भी यदि उत्साह का त्यागकर वह प्रमाद करता है तो उसका कार्यं भी सफल नहीं होता

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